भगवान्  श्रीकृष्ण

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परधर्म | ग्रंथालय | चार नियम | चित्र प्रदर्शनी | इस्कान वेब जाल | गुरू परम्परा | दर्शन

31. शूरवीर   

  ऐसा व्यक्ति जो सैन्य कार्यों में अत्यंत उत्साही एवं विभिन्न प्रकार के हथियारों को चलाने में दक्ष होता है ,शूरवीर कहलाता है । युद्ध के समय कृष्ण के वीरता के विषय में निम्नलिखित कथन आता है । " हे शत्रुओं के हंता ! जिस प्रकार हाथी सरोवर में स्नान करते समय अपनी सूंड़ से कमल नालों को नष्ट कर देता है उसी प्रकार आपने हाथी की सूंड़ जैसे अपने हांथों चलाकर कमलतुल्य शत्रुओं को मार डाला है । "

    श्रीकृष्ण के हथियार चलाने की दक्षता के विषय में कहा जाता है कि जब जरासन्ध ने अपने सैनिकों की 21 अक्षौहिणी  के साथ  कृष्ण की सेना पर आक्रमण कर दिया तो वह कृष्ण की सेना के एक भी सैनिक को क्षति नहीं पंहुचा पाया । वह कृष्ण के दक्ष सैन्य प्रशिक्षण के कारण हुआ । सैन्य कला के इतिहास में यह अद्वितीय है।

32. दयालु   

   जो व्यक्ति दूसरे के दु:ख को सहन नहीं कर पाता वह करूण या दयालु कहलाता है । दु:खी लोगों प्रति कृष्ण की दया का प्रदर्शन तब हुआ जब उन्होंने मगधेन्द्र द्वारा बन्दी बनाये गये राजाओं को रिहा कराया । मरते समय भीष्म पितामह ने जो स्तुति की उसमें उन्हें ऐसा सूर्य बताया जो अन्धकार का विनाश कर देता है । मगधेन्द्र द्वारा बन्दी बनाये गये राजा काल - कोठरियों में रखे गये थे । जब कृष्ण वहां प्रकट हुए तो सारा अन्धकार तुरंत दूर हो गया मानो सूर्य उदित हुआ हो । दूसरे शब्दों में यद्यपि मगधेन्द्र ने अनेकानेक राजाओं को बन्दी बनाया था किंतु कृष्ण ने जाते ही उन्हें मुक्त कर दिया । कृष्ण ने दयावश ही राजाओं को बन्धन से मुक्त किया था  । कृष्ण की करूणा तब भी प्रकट हुई थी जब भीष्मजी शरशय्या में लेटे हुए थे । इस तरह लेटे हुए वे कृष्ण का दर्शन के लिए अत्यंत उत्सुक थे और तभी कृष्ण वहां प्रकट हुए । भीष्म की दयनीय दशा देखकर कृष्ण में आंसू आ गये । वे अश्रुपात ही नहीं कर रहे थे ,अपितु करूणवश अपनी सुध-बुद्ध भी खो बैठे । अतएव भक्तगण सीधे कृष्ण को नमस्कार न करके उनके करूण स्वभाव को नमस्कार करते हैं । वस्तुत: परमेश्वर होने के कारण कृष्ण तक पहुंच पाना अत्यंत कठिन है । किंतु करूणा का लाभ उठाकर भक्तगण उनकी दया के लिए सदैव राधारानी से प्रार्थना करते हैं , क्योंकि राधारानी साक्षात् कृष्ण की करूणा हैं ।

33. सम्मान करने वाले (मान्यमानकृत)   

    जो व्यक्ति अपने गुरु,ब्राह्मण तथा गुरुजनों के प्रति समुचित सम्मान प्रदान करता है वह मान्यमानकृत कहलाता है ।

   जब कृष्ण के समक्ष गुरुजन एकत्र होते तो वे सर्वप्रथम अपने गुरु को ,फिर पिता को ,तब अग्रज बलराम को प्रणाम करते थे । इस प्रकार राजिव नयन भगवान्  श्रीकृष्ण परम सुखी थे और अपने सारे आचरणों में शुद्ध-हृदय थे ।

34. भद्र (विनीत)   

  जो व्यक्ति न तो उद्धत है ,न गर्व करता है वह भद्र कहलाता है ।

    जब कृष्ण अपने बड़े फुफेरे भाई ,महाराज युधिष्टिर द्वारा आयोजित राजसूय यज्ञ में भाग लेने आ रहे थे तो उस समय उसका भद्र आचरण प्रदर्शित होता है । महाराज युधिष्टिर जानते थे कि कृष्न भगवान् हैं इसलिए उनकी आगवानी के लिए अपने रथ से उतरना चाह रहे थे । किंतु युधिष्टिर द्वारा रथ से उतरने के पूर्व ही कृष्ण अपने रथ से उतर आये और तुरंत राजा के चरणों में गिर पड़े । यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं , किंतु वे अपने व्यवहार में सामाजिक शिष्टता बातना कभी नहीं भूलते ।

35.उदार   

    जिस व्यक्ति का स्वभाव अत्यंत मृदु होता है वह उदार कहलाता है । स्यमंतक मणि के लूट के बाद उद्दव के कथन से पुष्टि होती है कि कृष्ण इतने दयालु तथा हितकर हैं कि यदि किसी सेवक से भारी अपराध भी हो जाय वे उसको ध्यान में नहीं लाते । वे अपने भक्त द्वारा द्की गई सेवा पर ही ध्यान देते हैं ।

36.लज्जालु   

    जो व्यक्ति कभी - कभी विनम्रता तथा संकोच प्रदर्शित करता है । वह लज्जालु कहलाता है ।

    जैसा कि ललित माधव में कहा गया है , जब कृष्ण ने अपने बांये हांथ की छोटी अंगुली से गोवर्धन पर्वत को उठा लिया तो उनकी लज्जा प्रकट हुई। सारी गोपियां कृष्ण की अद्भुत कार्य को देख रहीं थीं और कृष्ण भी गोपियों को देखकर मुस्करा रहे थे । जब कृष्ण की निगाह गोपियों के स्तनों पर गई तो उनका हांथ डगमगाने लगा जिसे देखकर पर्वत के नीचे खड़े सारे गोपजन कुछ विचलित हो उठे । उस समय घोर शब्द हुआ और सारे लोग अपनी सुरक्षा के लिए कृष्ण से प्रार्थना करने लगे । उस समय बलरामजी यह सोचकर मुस्करा रहे थे कि सारे गोपजन गोवर्धन पर्वत के डगमगाने से भयभीत हो उठे हैं । किंतु बलराम की मुस्कान देखकर कृष्ण ने सोचा कि बलराम ने उनके मन की बात ताड़ ली है कि वे गोपियों के स्तनों को देख रहे हैं अतएव तुरंत लाज से गड़ गये ।

37.शरणागत पालक   

    श्रीकृष्ण समस्त शरणागतों के पालक या रक्षक हैं ।

     श्रीकृष्ण का एक शत्रु इस विचार से प्रफुलित था कि उसे कृष्ण से भयभीत नहीं होना चाहिए , क्योंकि यदि वह मात्र उनकी शरण में चला जाय तो वे उसकी सब प्रकार से रक्षा करेंगे । कृष्ण की तुलना कभी - कभी चन्द्रमा से की जाती है । जो अपनी शीतल किरणों को चण्डालों तथा अन्य अछूतों के घरों में भी बिखेरने में जरा भी नहीं सकुचाता ।

38.सुखी   

    जो व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहता है और जिसे कोई दु:ख छु नहीं सकता है वह सुखी कहलाता है ।

    जहां तक कृष्ण के भोग की बात है ,यह कहा जाता है कि कृष्ण तथा उनकी रानियों के शरीर को अलंकृत करने वाले आभूषणों की कल्पना स्वर्ग का कोषाध्यक्ष कुबेर तक नहीं कर सकता था । कृष्ण के महलों के द्वारों पर जो नृत्य होते थे उनकी कल्पना स्वर्ग के देवता भी नहीं कर सकते थे । स्वर्ग में इन्द्र सदैव अप्सराओं के देखा करता है किंतु वही इन्द्र कृष्ण के महलों के समक्ष होने वाले नृत्यों की कल्पना तक नहीं कर सकता था । गौरी का अर्थ है गौर वर्ण वाली स्त्री और यह भगवान् शिव की पत्नि का भी नाम है । कृष्ण के महलों में रहने वाली सुन्दरियां गौरी से भी इतनी अधिक गौरवर्ण वाली थीं कि उनकी तुलना चान्दनी से की जाती थी और वे निरंतर कृष्ण के सामने रहती थीं । अतएव कृष्ण से बड़कर किसी को भोग प्राप्त नहीं हो सकता है । सुन्दर स्त्री ,आभूषण तथा धन - ये ही भोग की धारणायें हैं । और ये सभी वस्तुएं कृष्ण के महलों में प्रचुर मात्रा में प्राप्त थीं  जिसका अनुमान कुबेर ,इन्द्र या शिव भी नहीं कर लगा सकते थे । 

   कृष्ण को रंचमात्र भी दु:ख नहीं छू सकता । एक बार कुछ गोपियां यज्ञ में रत ब्राह्मणों के निकट गईं और बोलीं , " हे ब्राह्मण पत्नियों ! यह जान लो कि कृष्ण को दु:ख की गन्ध भी नहीं लग सकती । उन्हें न हानि की परवाह है , अपयश की । न उन्हें भय है ,न चिंता , नही वे विपत्ति को जानते हैं । वे तो नर्तकियों से सदैव घिरे रहते हैं और रासनृत्य में उनके साहचर्य्य का भोग करते रहते हैं । "

39.अपने भक्तों के हितैषी   

    कृष्ण के भक्तों के विषय में यह कहा जाता है कि यदि भक्तिपूर्वक वे भगवान् विष्णु को थोड़ा जल या तुलसी दल ही चढ़ा दें तो विष्णु इतने दयालु हैं कि वे उनके हांथों बिक जाते हैं ।

   अपने भक्तों के प्रति कृष्ण के पक्षपात का प्रदर्शन भीष्म के साथ युद्ध के समय हुआ । जब भीष्म पितामह शरशय्या पर लेटे मृत्यु की अंतिम घड़ी गिन रहे थे तो कृष्ण उनके समक्ष उपस्थित थे भीष्म  यह स्मरण कर रहे थे कि युद्ध क्षेत्र में कृष्ण उन पर कितने दयालु रहे । कृष्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि वे कुरुक्षेत्र के युद्ध में किसी पक्ष की ओर से कोई अस्त्र ग्रहण नहीं करेंगे ,  वे निष्पक्ष बने रहेंगे । यग्यपि वे अर्जुन के सारथी थे , किंतु उन्हों ने वचन दिया था कि अर्जुन की सहायता के लिए अस्त्र नहीं उठायेंगे । किंतु एक दिन भीष्म ने कृष्ण की प्रतिज्ञा को भंग करने के लिए अर्जुन के विरुद्ध अपना शौर्य इस दक्षता से दिखलाया कि कृष्ण को अपने रथ से उतर कर नीचे आना पड़ा । वे रथ के एक टूटे पहिये को लेकर भीष्म पितामह की ओर उसी तरह दौड़ पड़े जिस तरह हाँथी को मारने के लिए सिंह उसकी ओर दौड़ता है । भीष्म पितामह को यह दृश्य स्मरण था और बाद में उन्होंने कृष्ण की प्रशंसा की कि अपने भक्त अर्जुन का पक्ष ग्रहण करने के लिए कृष्ण ने अपनी प्रतिज्ञा के टूटने तक की परवाह नहीं की ।

40.प्रेमवश्य   

   कृष्ण भक्त की प्रेममयी भावना के वशीभूत होते हैं , उसके द्वारा की गई सेवा के नहीं । ऐसे कृष्ण की पूरी तरह से सेवा भी नहीं की जा सकती है । वे इतने पूर्ण तथा आत्म निर्भर हैं कि उन्हें भक्त से किसी प्रकार की सेवा की अपेक्षा नहीं रहती । वे तो भक्त के प्रेम भाव एवं स्नेह से वशीभूत होते हैं । इस प्रेमवश्यता का उदाहरण तब प्रकट हुआ  जब सुदामा विप्र कृष्ण  के महल में गया । सुदामा विप्र कृष्ण का सहपाठी था और निर्धनता के कारण उसकी पत्नी ने कुछ सहायता माँगने के लिए उसे कृष्ण  के पास भेजा था । जब सुदामा विप्र कृष्ण के महल में पहुँचा तो कृष्ण ने उन्हें अच्छी तरह स्वागत किया और अपनी पत्नी समेत उसका पादप्रक्षालन करके ब्राह्मण के प्रति सत्कार प्रदर्शित किया । सुदामा के साथ अपने बचपन का प्रेम व्यापार स्मरण करके उसे मिलने पर कृष्ण के प्रेमाश्रु बह निकले ।

   श्रीमद्भागवत में (10.9.18) भक्त के प्रति कृष्ण की प्रेमवश्यता का एक दूसरा उदाहरण मिलता है जहाँ शुकदेव गोस्वामी राजा परिक्षित को बतलाते हैं " हे राजन! जब माता यशोदा कृष्ण को रस्सी से बाँधते -बाँधते  पसीना -पसीना हो गईं तो कृष्ण ने उनके द्वारा अपने को बँधवा लिया ।" बालक रुप में कृष्ण अपने नटखट कार्यों से अपनी माता को तंग करते थे , अतएव वे उन्हें बाँध देना चाह रही थी । वे घर से थोड़ी रस्सी ले आईं और उस बालक को बाँधने का प्रयास करने लगीं , किंतु रस्सी छोटी पड़ने के के कारण वे गाँठ नहीं लगा पाईं । उन्होंने कई रस्सियाँ जोड़ीं ,किंतु तो भी रसी छोटी पड़ गई । थोड़ी देर बाद वे बहुत थक गईं और उनको पसीना आ गया । उस समय कृष्ण ने अपने आप को अपनी माता से बँधवा लिया । दूसरे शब्दों में , कृष्ण को प्रेम के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से बाँधा नहीं जा सकता । वे अपने भक्तों के प्रेमवश्य होकर ही बँधते हैं  , क्योंकि उनके प्रति भक्तों का रागात्मक प्रेम है ।

41.सर्वमंगलमय   

    जो व्यक्ति हर एक के लिए शुभ कल्याणकारी कार्यों में लगा रहता है  वह सर्व - कल्याणप्रद या सर्व मंगलमय कहलाता है । इस श्लोक से भगवान् क़ृष्ण  के तिरोधान होने पर उद्धव उनके कारयकलापों का स्मरण करते हुए बोले " कृष्ण अपनी अद्भुत लीलाओं से समस्त ऋषियों को प्रसन्न करते थे । उन्होंने क्रूर राजाओं के आसुरी कार्यों को ध्वस्त किया , सभी पवित्र पुरुषों की रक्षा और युद्ध क्षेत्र में समस्त क्रूर राजाओं का विनाश किया । अतएव वे सभी लोगों के लिए सर्व मंगलमय हैं । "

42.परम शक्तिशाली   

      जो व्यक्ति अपने शत्रु को विपत्तियों में डाल सकता है वह शक्तिशाली कहलाता है । जब कृष्ण इस धराधाम में विद्यमान थे तो उन्होंने अपने शत्रुओं को उसी तरह खदेड़ दिया था जिस तरह शक्तिशाली सूर्य अन्धकार को गुफाओं में शरण लेने के लिए भगा देता है । उनके शत्रु उल्लुओं की तरह उअंकी दृष्टी से ओंझल होकर भाग गये ।

43.सर्व प्रसिद्ध (परम यशस्वी)   

     अपने निर्मल चरित्र के कारण मनुष्य परम यशस्वी कहलाता है ।

     कहा गया है कि कृष्ण के यश का विस्तार चाँदनी के समान होता है जो अन्धकार को प्रकाश में बदल देती है । दूसरे शब्दों में , यदि कृष्ण भावनामृत का विश्वभर में प्रसार किया जाय तो अज्ञान का अन्धकार एवं संसार की चिंता , शुद्धि,शांती तथा सम्पन्नता  की शुभ्रता में परिणत हो  जाय । जब देवर्षि नारद भगवान् का यशोगान कर रहे थे  तो शिवजी के कंठ की नीली रेखा लुप्त हो गई । यह देखकर शिवपत्नि गौरी इस शंका से कि वे कहीं उनके पति के वेश में कोई छद्मवेशी  तो नहीं हैं , उन्हें छोड़कर तुरंत चली गईं । इसी तरह कृष्ण के नाम का कीर्तन सुनकर बलरामजी ने देखा कि उनका वस्त्र सफेद हो गया है , यद्यपि वे सामान्यतया नीला वस्त्र धारण करते थे । इसी तरह गोप कुमारियों ने देखा कि यमुना नदी का सारा जल दूध बन गया है , अतएव वे उसे बिलोकर मक्खन निकालने लगीं । दूसरे शब्दों में , कृष्णभावनामृत या कृष्ण के यश का प्रसार करने से हर वस्तु श्वेत एवं शुद्ध बन गई ।

44.लोकप्रिय   

    जो व्यक्ति जनता में अत्यंत प्रिय होता है वह लोकप्रिय कहलाता है ।

    कृष्ण की लोकप्रियता विषयक एक कथन श्रीमद्भागवत (1.11.9)में मिलता है जो उनके राजधानी हस्तिनापुर से अपने घर लौटते समय का है । जब कुरुक्षेत्र के युद्ध के समय वे द्वारका से अनुपस्थित थे तो द्वारका के सारे नागरिक अत्यंत खिन्न थे । किंतु जब वे लौट कर आये तो नागरिकों ने उनका हर्षपूर्वक स्वागत किया और कहा, "हे प्रभु ! जब तक आप इस पुरी से अनुपस्थित थे तब तक हमने अपने दिन अन्धकार में बिताये । जिस प्रकार रात के अन्धकार में हर क्षण एक कल्प सा लगता है उसी तरह आप चले गये तो हमें हर क्षण लाखों वर्षों की तरह लगा । आपका विरह हमारे लिए अत्यंत असह्य है ।" इस कथन से यह पता चलता है कि कृष्ण देश भर में कितने लोकप्रिय थे ।

    ऐसी ही घटना तब घटी जब कृष्णजी ने  राजा कंस के द्वारा उनकी मृत्यु के लिए आयोजित यज्ञस्थल में ,प्रविष्ट हुए । जब  वे उस स्थान में प्रविष्ट हुए तो सारे मुनियों ने जय-जयकार की । उस समय कृष्ण बालक थे और समस्त मुनियों ने उन्हें सादर आशिर्वाद दिया । वहाँ पर स्थित देवता भी स्तुति करने लगे उपस्थित महिलाओं तथा कुमारियों ने यज्ञशाला के सभी कोनों से हर्ष व्यक्त किया । दूसरे शब्दों में , उस स्थल पर कोई ऐसा न थ जिसमें वे लोकप्रिय न रहे हों ।

45. भक्तों के पक्षधर   

    यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं और किसी का पक्षपात नहीं करते , किंतु भगवद्गीता में कहा गया है कि वे उन भक्तों के प्रति विशेष प्रिति रखते हैं जो प्रेमपूर्वक उनके नाम की पूजा करते हैं । जब कृष्ण इस धराधाम में थे तो एक भक्त ने अपनी भावना इस प्रकार व्यक्त की थी , " हे प्रभु ! यदि आप इस लोक में अवतीर्ण न हुए होते तो भक्तों के कार्यकलापों के विरुद्ध असुर एवं नास्तिक अवश्य ही उपद्रव खड़ा करते रहते । आपके अवतार होने से जितना विनाश रुका है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है । " श्रीकृष्ण अपने प्राकट्य के प्रारंम्भ से ही असुरों के घोर शत्रु थे , यद्यपि यह शत्रुता भक्त साथ मैत्री के समतुल्य है । ऐसा इसलिए है , क्योंकि कृष्ण के हाँथों मृत्यु पाने वाले हर असुरों को मोक्ष मिलता है।

46. समस्त स्त्रियों के लिए अतीव आकर्षक   

     जिस व्यक्ति में विशेष गुण होते हैं वह स्त्रियों के लिए तुरंत परम आकर्षक बन जाते है ।

     एक भक्त ने द्वारका के रानियों के बारे में यह वक्तव्य दिया है , " भला मैं उन द्वारका की रनियों का वर्णन कैसे कर सकता हूँ जो भगवान् की सेवा में लगी हुईं हैं ? भगवान् इतने महान हैं कि नारद जैसे सभी महान ऋषि उनके नाम जप मात्र से दिव्य आनन्द भोग  सकते हैं । अतएव उन रानियों के विषय में क्या कहा जाय जो प्रतिक्षण उनका दर्शन तथा उनकी सेवा करती रहती हैं ?" द्वारका में कृष्ण के 16108 रानियाँ थीं और उनमें से हर रानी कृष्ण के प्रति उसी प्रकार आकृष्ट थीं जिस प्रकार लोहा चुम्बक के प्रति आकृष्ट होता है । एक भक्त कहता है , हे प्रभु! आप चुम्बक की तरह हैं और ब्रज की सारी बालाएँ लोहे के समान हैं । आप जिस ओर जाते हैं वे चुम्बक शक्ति से आकृष्ट लोहे की तरह आपकी ओर जाती हैं ।"

47. सर्व - आरध्य   

     जो व्यक्ति सारे मनुष्यों एवं देवताओं के द्वारा अदरित एवं पूजनिय होता है वह सर्वाराध्य कहलाता है । कृष्णजी शिव तथा ब्रह्मा समेत सारे जीवों के द्वारा आराध्य तो हैं ही , वे बलदेव तथा शेष जैसे विष्णु के अंशों द्वारा भी आराध्य हैं । बलदेव कृष्ण के स्वांश हैं ,फिर भी वे कृष्ण को आराध्य मानते हैं । जब कृष्णजी महाराज युधिष्टिर द्वारा आयोजित राजसूय में प्रकट हुए तो कृष्ण वहाँ पर उपस्थित महर्षियों तथा देवताओं समेत हर एक के लिए आकर्षण के केन्द्र बन गये और हर एक ने उनका अभिवादन किया ।

48. सर्व सम्पन्न   

     कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों-बल धन,यश सौंदर्य,ज्ञान एवं त्याग - से युक्त हैं । जब कृसःन द्वारका में वर्तमान थे तो उनके यदुकुल में कुल मिलाकर 5600 लाख व्यक्ति थे । ये सभी लोग कृष्ण के अत्यन्यंत अज्ञाकारी एवं विश्वासपात्र थे । इन लोगों के रहने के लिए 9 लाख बड़ी बड़ी इमारतें थीं और ये सारे लोग कृष्ण को सर्वाधिक आरध्य मानते थे । भक्तगण कृष्ण के ऐश्वर्य को देखकर चकित थे ।

    कृष्णकर्णामृत में बिल्वमंगल ठाकुर ने कृष्ण को जिस तरह सम्बोधित किया उससे उसकी पुष्टि होती है , हे प्रभु! आपके वृन्दावन के ऐश्वर्य के बारे में क्या कहूँ ? वृन्दावन की सुन्दरियों के पाँवों के आभूषण ही चिंतामणी से बढ़कर हैं और उनके वस्त्र स्वर्गिक परिजात पुष्प की तरह हैं । यहाँ की गायें दिव्य धाम की सुरभि गायों की तरह हैं । आपका ऐशवर्य समुद्र के समान अगाध है । " 

49. सर्व सम्मान्य   

    जो व्यक्ति प्रमुख व्यक्तियों में अग्रणी होता है वह सर्वसम्मान्य कहलाता है । जब कृष्ण द्वारका में निवास कर रहे थे  तो शिव ,ब्रह्मा,इन्द्र जैसे देवतागण तथा अन्य कई देवता दर्शन करने आया करते थे । जो द्वारपाल इन देवताओं को प्रवेश करने देने के लिए नियुक्त था इतना व्यस्त रहता था कि उसने एक दिन कहा, हे ब्रह्मा, हे शिव ! आप इस आसन पर बैठकर प्रतिक्षा करें । हे इन्द्र ! आप अपना स्तुति पाठ न करें । इससे आशांति उत्पन्न होती है । कृपया शांतिपूर्वक प्रतिक्षा करें । हे वरूण ! चले जाईये । हे देवताओं ! अपना समय न गँवायें । कृष्ण अत्यंत व्यस्त हैं । वे आपसे नहीं मिल सकते । " 

50. परम नियंता   

     नियंता या प्रभु दो प्रकार के होते हैं -एक तो वह जो स्वतंत्र नियंता है  और दूसरा वह जिसके आदेश की उपेक्षा कोई नहीं कर सकता ।   श्रीकृष्ण की पूर्ण स्वतंत्रता तथा उनकी प्रभुता के विषय में श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि यद्यपि कालिय महान अपराधी था तो भी कृष्ण ने उनके शिर पर अपने चरणों का चिह्न अंकित करके उसे कृतार्थ किया । दूसरी ओर यद्यपि ब्रह्मा ने अनेक अद्भुत श्लोकों से कृष्ण की स्तुति की तो भी वे उनकी ओर आकृष्ट नहीं हुए । 

      कृष्ण का यह विरोधात्मक आचरण उनके पद के अनुरुप है , क्योंकि समस्त वैदिक वाङमय में कृष्ण को पूर्ण स्वतंत्र बतलाया गया है । श्रीमदभागवत के प्रारंभ में ही भगवान् को स्वराट् कहा गया है जिसका अर्थ है "पूर्णतया स्वतंत्र " । परम सत्य का यही पद है । परम सत्य केवल चेतनामय नहीं अपितु वह पूर्णतया स्वतंत्र भी है ।

      जहाँ तक कृष्ण के आदेशों की किसी के भी द्वारा उपेक्षा न किये जाने का प्रश्न है । श्रीमद्भागवत में (3.2.21) उद्धव विदुर से कहते हैं , " कृष्ण प्रकृति के तीनों गुणों के स्वामी हैं । वे समस्त ऐश्वर्य के भोक़्ता हैं , अतएव न तो कोई उनके समान है न उनसे बड़कर है।" सारे राजा तथा महाराजा  उनके समक्ष आकर भेंटें अर्पित करते थे और अपने मुकुटों को उनके चरणों पर रख कर नमस्कार करते थे । एक भक्त ने कहा , "हे कृष्ण ! जब आप ब्रह्माजी को आदेश देते हैं कि "हाँ, अब आप ब्रह्माण्ड की सृष्टि कर सकते हैं । तथा जब आप शिवजी को आदेश देते हैं " इस भौतिक जगत का संहार कर दिजिये ।" उस समय आप स्वयं सृष्टि तथा संहार करते होते हैं । आप अपने आदेशों एवं अपने अंश विष्णु के द्वारा ब्रह्माण्ड का पालन करते हैं । इस तरह हे कृष्ण ! हे कंसारि ! आपके आदेशों को पालने वाले  न जाने कितने ब्रह्मा तथा शिव हैं ।

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