भगवान्  श्रीकृष्ण

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भगवान् श्रीकृष्ण   
11. सुपण्डित  

   जब कोई व्यक्ति अत्यधिक शिक्षित होता होता है और दृढ़तापूर्वक नैतिक नियमों के अनुसार कार्य करता है  तो वह परम विद्वान कहलाता है । ज्ञान के विभिन्न विभागों में दक्षव्यक्ति शिक्षित कहलाता है और चूंकि वह नैतिक नियमों के अनुसार कार्य करता है , अतएव नैतिक रूप से पुष्ट माना जाता है ये दोनों गुण मिलकर विद्वत्ता कहलाते हैं ।

  सांन्दीपनि मुनि के यहां कृष्ण द्वारा शिक्षा ग्रहण का वर्णन नारद मुनि ने इस प्रकार किया है , " प्रारम्भ में ब्रह्मा तथा अन्य लोग उन बाद्लों की तरह हैं जो कृष्ण रुपि महासागर के जल की भाप से से बनते हैं । दूसरे शंब्दों में , ब्रह्मा ने अपनी प्रारम्भिक वैदिक शिक्षा कृष्ण से प्राप्त की , जिस तरह सारे बादल समुद्र से जल प्राप्त करते हैं । फिर ब्रह्मा ने जो वैदिक शिक्षा विश्व को दी उसे सान्दीपनि मुनि रुपी पर्वत का आश्रय प्राप्त हुआ । सान्दीपनि मुनि द्वारा कृष्ण को दिये गये उपदेश पर्वत की उस जलाशय की भांति है जो नदी के रुप में बह कर पुन: अपने श्रोत कृष्ण रुपी सागर से मिलने जाता है ।"  अधिक स्पष्ट करने पर , भाव यह है कि कृष्ण को कोई शिक्षा नहीं दे सकता जिस प्रकार सागर अन्यत्र श्रोत से जल न लेकर अपने ही श्रोत से जल लेता है केवल ऐसा लगता है कि नदीयां समुद्र में जल उड़ेल रहीं हैं । अतएव स्पष्ट है कि ब्रह्मा ने अपनी शिक्षा कृष्ण से प्राप्त की और शिष्य परंपरा द्वारा ब्रह्मा से यह वैदिक विद्या वितरित हुई । सान्दीपनि मुनि उस नदी के तुल्य हैं जो पुन: उसी मूल कृष्ण रूपी सागर की प्र बहती है ।

   सिद्धगण अर्थात्  सिद्धलोक वासी ( जो पूर्ण विकसित योग सिद्धि शक्ति सहित उत्पन्न होते हैं ) और ऐसे ही अन्य लोक के वासी चारण गण कृष्ण से इस प्रकार  प्रार्थना करते हैं , " हे गोविन्द ! विद्या के देवी चौदह प्रकार की शिक्षा विषयक आभूषणों से सुसज्जित है , उसकी बुद्धि चारों वेदों में सर्वव्याप्त है , उसकी दृष्टि सदैव मनु जैसे मुनियों द्वारा प्रदत्त विद्धि ग्रंथों पर रहती है और वह छै: प्रकार के दक्ष ज्ञान से - अर्थात् न्याय ,व्याकरण ,फलित ज्योतिष , छन्द ,निरुक्त तथा तर्क से विभूषित है । वेदांग , पुराण उसके नित्य सखा हैं और वह समस्त और वह समस्त विद्याओं के अंतिम निर्णय से अलंकृत है । अब उसे पाठ शाला में अपने सहपाठी के रूप में आपके साथ बैठने का अवसर मिला है और वह अब आपकी सेवा में लगी हुई है । "

   कृष्ण को किसी प्रकार की आवश्यकता नहीं है , किंतु वे विद्या की देवी को सेवा करने का अवसर प्रदान करते हैं । आत्मनिर्भर होने के कारण कृष्ण को जीव से सेवा कराने की आवश्यकता नहीं है ,यद्यपि उनके अनेक भक्त हैं । किंतु वे इतने उदार एवं कृपालु हैं कि हर एक को सेवा करने का अवसर देते हैं  मानो उन्हें अपने सारे भक्तों से सेवा कराने की आवश्यक्ता हो ।

     उनकी नैतिकता के विषय में श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है कि कृष्ण वृन्दावन  उसी प्रकार शासन कर रहे हैं मानो चोरों के लिए सक्षात मृत्यु हों , पवित्र आत्माओं के लिए सुखद आनन्द हों , तरुणियों के लिए सुन्दर कामदेव हों तथा निरधन व्यक्तियों के लिए परम दानी हों । वे अपने मित्रों के लिए चन्द्रमा के समान उत्फुल्लकारी और अपने विपक्षियों के लिए शिवजी से उत्पन्न प्रलयंकारी अग्नि हैं । अतएव कृष्ण विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ अपने पारस्परिक बर्ताव में परमपूर्ण नैतिकतावादी हैं । जहां वे चोरों के लिए साक्षात् काल हैं वहां ऐसा नहीं हैं कि नैतिक नियमों से विहिन हों या क्रूर हों । तो भी वे दयालु रहते हैं , क्योंकि चोरों को प्राण दण्ड देना तो नैतिकता की सर्वोच्च गुण है । भगवद्गीता में भी भगवान् कहते हैं कि वे विभिन्न व्यक्तियों के साथ उनके बर्ताओं के अनुसार ही पृथक -पृथक बर्ताव करते हैं यद्यपि भक्तों तथा -अभक्तों के साथ उनके पृथक -पृथक हैं तो भी समान रुप से वे उत्तम होते हैं । चूंकि कृष्ण सर्वोत्तम हैं , अतएव एक के साथ उनका बर्ताव उत्तम होता है । 

12.अत्यधिक बुद्धिमान

     जिस मनुष्य की स्मरण शक्ति तीक्ष्ण एवं विवेक शक्ति उत्तम होती है वह बुद्धिमान कहलाता है । जहां तक कृष्ण की स्मरण शक्ति का सम्बन्ध है ,यह कहा जाता है कि जब वे अवंतीपुर में सान्दीपनि मुनि के पाठशाला में पढ़ रहे थे तो अपनी तीक्ष्ण स्मरण-शक्ति का परिचय ऐसे दिया जिससे वे अपने गुरु से किसी भी विषय में एक ही बार पाटःअ कर लेने से तुरंत पारंगत बन जाते थे । वस्तुत: वे सान्दीपनि मुनि की पाठशाला में लोगों को यह दिखलाने के लिए गये कि कोई कितना ही महान या दक्ष क्यों न हो उसे सामान्य शिक्षा के लिए उच्च अधिकारियों के पास जाना चाहिए । कोई कितना ही महान क्यों न हो उसे गुरु स्वीकार करना चाहिए । क़ृष्ण के सद् विवेक का प्रदर्शन तब हुआ जब वे मथुरा नगरी पर आक्रमण करने वाले अछूत राजा यवन से युद्ध कर रहे थे । वैदिक कर्मकाण्ड के अनुसार छत्रिय राजा अछूतों को उनका वध करते समय भी नहीं छूते । अतएव जब उस अछूत राजा ने मथुरा नगरी को घेर लिया तो कृष्ण ने उसका वध अपने हांथों से करना उचित नहीं समझा फिर भी उसका वध होना था , अतएव कृष्ण ने सद् विवेक से निश्चय किया कि उन्हें युद्धभूमि से भाग जाना चाहिए जिससे वह अछोत राजा कालयवन उनका पीछा कर ले । इस तरह वे उस राजा को उस पर्वत में ले गये जहां मुचुकुन्द सो रहा था । मुचुकुन्द को कार्तिकेय से वर प्राप्त हो चुका था कि जब वह अपनी नींद से उठेगा तो उस समय जो भी उसके समक्ष होगा जल कर भष्म हो जायेगा । अतएव कृष्ण ने उचित समझा कि इस अछूत राजा को वे उस गुफा में ले जांय , जहां राजा के जाने से मुचुकुन्द की नीद्रा भंग हो और वह तुरंत जलकर भष्म हो जाय ।

13.प्रतिभावान्

     जो  व्यक्ति अपने नये -नये तर्कों से किसी भी प्रकार की विरोधी बात क काट सके वह प्रतिभावान्  कहलाता है । इस सम्बन्ध में पद्यावली में एक श्लोक आता है जिसमें राधा और कृष्ण का वार्तालाप है । एक दिन प्रात: जब कृष्ण राधा के पास गये तो राधा ने पूछा " हे केशव ! इस समय आपका वास कहां है ? " संस्कृत शब्द वास के तीन अर्थ होते हैं -निवास ,सुगंध तथा वस्त्र ।

     वास्तव में राधारानी ने कृष्ण से पूछा था कि आपका वस्त्र कहां है ? किंतु कृष्ण ने इसका अर्थ निवास लगाते हुए राधारानी को उत्तर दिया "हे मुग्धे ! इस समय मेरा वास तुम्हारे सुन्दर नेत्रों में है । "

     इस पर राधारानी बोलीं " अरे नटखट बालक ! मैंने तुमसे तुम्हारे निवास के बारे में नहीं पूछा । मैंनें तो तुम्हारे वास के के विषय में पूछा था ।"

     तब कृष्ण ने वास का अर्थ सुगन्ध लगाते हुए कहा" हे भाग्यशालीनी ! मैंने तुम्हारे शरीर का सानिध्य प्राप्त करने के लिए अभी-अभी सुगन्ध लगाई है ।"

    श्रीमती राधारानी ने पुन: कृष्ण से पूछा , " तुमने रात कहां बिताई ? " ( संस्कृत में वाक्य था - यामिन्याम् ) यामिन्याम का अर्थ है रात में " तथा "उषित: "का अर्थ है " बिताना ) । किंतु कृष्ण ने यामिन्यामुषित: का सन्धि विछेद यामिन्या तथा "मुषित: " के रुप में किया जिससे इसका अर्थ यह हो गया कि यामिनि अर्थात् रात्रि के द्वारा उनका अपहरण हो गया था । तिस पर कृष्ण ने राधारानी को उत्तर दिया , "हे राधारानी ! क्या यह सम्भव है कि रात मेरा अपहरण कर सके ? " वे राधारानी के प्रश्नों का उत्तर इअ चतुराई से दे रहे थे कि इससे गोपियों में श्रेष्ठ (राधा) प्रफुल्लित हो उठीं ।

14.विदग्ध

जो व्यक्ति अत्यंत कलात्मक ढंग से बात कर सके और वस्त्र धारण कर सके वह विदग्ध कहलाता है । यह गुण श्रीकृष्ण में देखा जा सकता है । राधारानी ने इस बारे में इस प्रकार कहा है -" हे सखी! ! जरा देखो तो कृष्ण ने कितने सुन्दर गीत बनाये हैं और वे किस ढंग से नाच रहे रहे हैं । वे किस तरह हंसाने वाली बात करते हैं और अपनी बांसुरी बजाते हैं वे कितनी सुन्दर मालायें धारण किए हुए हैं । उन्होंने कितने मोहक ढंग से वस्त्र धारण किये हैं मानो उन्होंने शतरंज के सारे खिलाडियों को जीत लिया हो । वे कालाकरिता के सर्वोच्च शिखर पर विचित्र रुप से रह रहे है ।"

15.चतुर

   जो व्यक्ति तुरंत एक साथ अनेक काम कर स्कए वह चतुर कहलाता है । इस प्रसंग में एक गोपी कहती है, "हे सखियों ! देखो न श्रीकृष्ण की चतुराईयों को ! उन्हों ग्वालों के विषय में सुन्दर गीत रचे हैं और वे गायों को भी अह्लादीत कर रहे हैं । वे अपनी आंखों की मटक से गोपियों को प्रसन्न कर रहे हैं  और साथ ही वे अरिष्टासुर जैसे असुरों से लड़ते भी है । इस तरह वे विभिन्न जीवों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार से आसीन हैं और पूरा-पूरा आनन्द उठा रहे हैं ।"

16.दक्ष

जो व्यक्ति किसी काम को तुरंत सम्पन्न करदे वह दक्ष कहलाता है ।श्रीमद्भागवतम् में (10.59.17) कृष्ण की दक्षता के विषय में एक कथन है , जिसमें शुकदेव गोस्वामी महाराज परिक्षित से कहते हैं कि , " हे कुरुश्रेष्ठ! श्रीकृष्ण ने विभिन्न योद्धायों द्वारा प्रयुक्त किये गये गये सारे आयुधों को खण्ड-खण्ड कर दिया । " प्राचीन काल में विभिन्न प्रकार के तीरों द्वारा युद्ध किया जाता था । एक पक्ष से कोई तीर छोड़ा जाता तो उसको काटने के लिए विपक्ष दूसरे प्रकार का तीर छोड़ता था । उदाहरणार्थ , यदि एक पक्ष ऐसा तीर छोड़ता जो आकाश से जल की वर्षा करता तो विपक्ष से ऐसा तीर छोड़ा जाता जो जल को तुंरत बादल में परिणत कर देता । इस कथन से प्रतीत होता हैकि कृष्ण शत्रु का सामना करने में अत्यंत दक्ष थे । इसी प्रकार रास नृत्य में प्रत्येक गोपी कृष्ण को अपना संगी बनाना चाहती थी , अतएव कृष्ण ने तुरंत अपना विस्तार अनेक कृष्णों में कर लिया जिससे वे हर गोपी का साथ दे सकें । फल यह हुआ कि वे हर गोपी के पार्श्व में दिखलाई पड़े ।

17.कृतज्ञ

   जो व्यक्ति अपने मित्र के लाभप्रद कार्यों से सचेत रहता है और उसकी सेवा को भी कभी नहीं भूलता वह कृतज्ञ कहलाता है । महाभारत में कृष्ण कहते हैं " जब मैं द्रौपदी से दूर था तो उसने 'हे गोविन्द ! ' कहकर पुकारा । उसकी इस पुकार ने मुझे उसका ऋणी बना दिया और वह ऋण-भार मेरे हृदय में क्रमश: बढ़ता जा रहा है । " कृष्ण का यह वाक्य इसका प्रमाण है कि भगवान् को " हे कृष्ण ! हे गोविन्द ! " के सम्बोधन से किस तरह प्रसन्न किया जा सकता है । 

     हरे कृष्ण ,हरे कृष्ण ,कृष्ण कृष्ण ,हरे हरे । हरे राम ,हरे राम,राम राम हरे हरे ॥ यह महामंत्र भी भगवान् तथा उनकी शक्ति का सम्बोधन है । ऐसे व्यक्ति के प्रति जो भगवान् तथा उनकी शक्ति को सम्बोधन करने में निरतंर लगा रहता है हम यह कल्पना कर सकते हैं कि भगवान् कितने कृतज्ञ हैं । भगवान् द्वारा ऐसे भक्त को भूल पाना असम्भव है । इस श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि जो भगवान् को सम्बोधन करता है वह उनका ध्यान तुरंत आकृष्ट कर लेता है और वे सदैव उसके कृतज्ञ बने रहते हैं ।

18.दृढ़संकल्प

   जो व्यक्ति विधानों का पालन करत है और व्यवहारिक कार्य द्वारा अप्ने वचनों को पूरा करता है वह दृढ़संकल्प  कहलाता है । जहां तक भगवान् के दृढ़निश्चय का सम्बध है , हरिवंश में उनके व्यवहारों का उदाहरण मिलता है । यह स्वर्ग के राजा  इन्द्र से परिजात पुष्प को बलपूर्वक छीन  लिये जाने पर कृष्ण के साथ युद्ध के विषय में है । परिजात एक प्रकार का कमल पुष्प है जो स्वर्गलोक में खिलता है । एक बार कृष्ण की रानी सत्यभामा ने इस पुष्प के लिए इच्छा प्रकट की तो कृष्ण ने लाकर देने का वचन दे दिया , किंतु इन्द्र ने अपना परिजात पुष्प देने से मना कर दिया । अतएव एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें अंततोगत्वा कृष्ण ने सबों को हरा दिया और वह परिजात पुष्प का वृक्ष द्वारका में लाकर सत्यभामा रानी के महल में रोप दिया इस प्रकार कृष्ण ने अपने रानी को पुष्प भेंट किया । इस सिलसिले में कृष्ण ने नारद मुनि को बतलाया , " हे देवर्षि ! आप समस्त भक्तों को और विशेष  रुप से अभक्तों में यह घोषित कर दे कि परिजात के प्राप्त करने में सारे देवताओं अर्थात् गन्धर्वों ,नागों राक्षसों , यक्षों ,पन्नगों ने मुझे पराजित करना चाहा , किंतु उनमें से कोई भी मेरे द्वारा अपनी रानी को दिये गये वचन को भंग नहीं करा सका ।"

     भगवद्गीता में कृष्ण द्वारा  दिया गया दूसरा वचन वह है जिसमें वे कहते हैं कि उनका भक्त कभी भी नष्ट नहीं   होगा । अतएव ऐसे निष्ठावान भक्त को जो सदैव भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में संलग्न रहता है यह निश्चित रुप से जान लेना चाहिये कि कृष्ण कभी अपना वचन भंग नहीं करेंगे । हर हालत में भक्तों की रक्षा करेंगे ।

   कृष्ण ने सत्यभामा को पारिजात पुष्प भेंट कर , द्रौपदी के अपमानित होने से बचाकर तथा अर्जुन को सारे शत्रुओं के आक्रमण से बचाकर यह दिखला दिया कि वे किस प्रकार अप्ने वचनों को पूरा करते हैं ।

    कृष्ण ने इस वचन को कि उनके भक्त कभी नष्ट नहीं होते इन्द्र ने पहले भी स्वीकार किया था जब वह गोवर्धन लीला में परास्त हुआ था । जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को इन्द्र की पूजा करने से रोक दिया तो इन्द्र क्रुद्ध हुआ और उसने मूसलाधार वर्षा द्वारा वृन्दावन को जलमग्न कर दिया । किंतु कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को छाते की तरह उठाकर वृन्दावन के सारे नागरिकों ,एवं पशुओं की रक्षा की । इस घटना के बाद इन्द्र ने अनेक स्तुतियां कीं और कृष्ण का शरण ग्रहण करते हुए स्वीकार किया ,'आपने गोवर्धन पर्वत धारण करके तथा वृन्दावन के वासियों की रक्शा करके अप्ने वचन को पूरा किया कि आपके भक्त कभी भी नष्ट नहीं होते । "

19.काल तथा  परिस्थियों के कुशल निर्णायक

   कृष्ण परिस्थियों ,देश,काल तथा साज समान के अनुसार लोगों से निपटने अत्यंत कुशल थे । वे उद्धव से गोपियों के साथ अपनी रास के विषय  में बतलाते हुए विशेष काल , परिस्थिति तथा व्यक्ति के बारे में अपनी कुशल पटुता का परिचय देते हैं " आज जैसी शरद  की पूर्णिमा की रात इसके लिए सर्वोपयुक्त  समय है । इसके लिए विश्वभर में  सर्वोत्तम स्थान वृन्दावन है  और सर्वसुन्दरी बालाएं गोपियां हैं । अतएव हे मित्र ! उद्धव ! मुझे इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर अब रास नृत्य में संलग्न होना चाहिये । " 

20.शास्त्रों के प्रमाण के अनुसार देखने वाला (शास्त्र चक्षु)

     जो व्यक्ति शात्रों के नियमों के अनुसार कारय करता है वह शास्त्र चक्षु कहलाता है । शास्त्र चक्षु का अर्थ है जो शास्त्रों की आंख से देखता है । वस्तुत: किसी भी ज्ञानी तथा अनुभवी व्यक्ति को इन्हीं ग्रंथों के माध्यम से हर वस्तु को देखना चाहिए । उदाहरणार्थ , हम अपनी कोरी आंखों से सूर्य मण्डल को देदीप्यमान वस्तु मात्र के रुप में देखते हैं ,किंतु जब हम विज्ञान के किसी प्रमाणिक ग्रंथ या अन्य साहित्य के माध्यम से देखते हैं तो हमें पता चलता है कि यह सूर्य मण्डल पृथवी से कितना बड़ा है और कितना शक्तिशाली है । अतएव कोरी आंखों से वस्तुओं को देखना वास्तविक देखना नहीं होता । प्रामाणिक ग्रंथों या शिक्षकों के माध्यम से वस्तुओं को देखना असली देखना है । इस तरह यद्यपि कृष्ण भगवान् हैं और भूत ,वर्तमान तथा भविष्य देख सकते हैं , किंतु लोगों को शिक्षा देने के लिए वे सदैव शास्त्रों का उल्लेख करते हैं । उदाहरणार्थ ,यद्यपि भगवद्गीता में कृष्ण सर्वोच्च अधिकारी के रूप में पवचन कर रहे थे तो भी वे वेदांत सूत्र को प्रमाण स्वरूप उद्धृत कर रहे थे ।श्रीमद्भागवत में एक कथन है जिसमें एक व्यक्ति व्यंग्य पूर्वक कहता है कि कंस के शत्रु कृष्ण को शास्त्र चक्षु कहा जाता है । किंतु अपनी प्रमाणिकता स्थापित करने के लिए वे गोपियों को ही देखने में लगे हुए हैं जिससे गोपियां मदान्ध हो चली हैं ।

 

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