भगवान्  श्रीकृष्ण

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परधर्म | ग्रंथालय | चार नियम | चित्र प्रदर्शनी | इस्कान वेब जाल | गुरू परम्परा | दर्शन

51. परिवर्तन रहित   

      कृष्ण कभी अपनी स्वरूप नहीं बदलते , यहाँ तक कि जब वे इस जगत में प्रकट होते हैं उस समय भी नहीं । सामान्य जीवों की स्वाभाविक आध्यात्मिक इच्छायें प्रच्छन्न होती हैं । वे विभिन्न शरीरों में प्रकट होते हैं और देहात्मबुद्धियों के अंतर्गत कर्म करते हैं । किंतु कृष्ण अपना शरीर नहीं बदलते । वे अपने शरीर से प्रकट होते हैं और इसलिए प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते । श्रीमद्भागवत में (1.11.38) कहा गया है कि परम नियंता का प्रमुख अधिकार यह है कि वे प्रकृति के गुणों से प्रभावित नहीं होते । इसका प्रत्यक्ष दृटांत यह है कि जो भक्त उनके सरंक्षण में होते हैं वे भी प्रकृति के द्वारा प्रभावित नहीं  होते । प्रक़ृति से पार पाना अत्यंत कठिन है , किंतु जो भक्त भगवान् कृष्ण के सरंक्षण में होते हैं वे प्रभावित नहीं होते । अतएव साक्षात् भगवान् कृष्ण के विषय में तो कहना ही क्या है । तात्पर्य यह है कि भगवान् कभी- कभी इस धराधाम में अवतरित होते हैं , किंतु प्रकृति के गुणों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता और वे अपने दिव्य पद का उपयोग पूरी स्वतंत्रता से करते हैं । यह भगवान् कृष्ण का विशिष्ट गुण है ।

52. सर्वज्ञ   

    जो व्यक्ति समस्त व्यक्तियों के भावों को तथा सभी कालों में एवं सभी स्थानों होने वाली घटनाओं को समझ सकता है वह सर्वज्ञ कहलाता है ।

    भगवान् की सर्वज्ञता का सुन्दर उदाहरण श्रीमद्भागवत में ( 1.15.11) प्राप्त होता है । जो वनवास काल में पाण्डवों के यहाँ दुर्वासा मुनि के जाने से सम्बन्धित  है । दुर्योधन ने कपट योजना बना कर दुर्वासा मुनि को उनके दश हजार शिष्यों समेत जंगल में पाण्डवों का अतिथि बनाकर भेजा । दुर्योधन ऐसा प्रबन्ध किया था कि दुर्वासा अपने शिष्यों समेत तब पहुँचे जब पाण्डव दोपहर का भोजन कर चुकें हों इससे पाण्डव इतने अतिथियों को भोजन नहीं दे सकेंगे और इस कपट योजना में फ़ंस जायेंगे । दुर्योधन का योजना जानकर कृष्ण पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी के पास आये और उन्होंने उससे कहा कि यदि उनके खाने के लिए कुछ भोजन बचा हो तो ले आओ । द्रौपदी ने वह पात्र लाकर दे दिया जिसमें शाक का थोडा अंश लगा हुआ था । कृष्ण ने तुरंत उसे खा लिया । उस समय दुर्वासा समेत सारे मुनि नदी में स्नान करने गये थे जब द्रौपदी द्वारा भेंट को खाकर कृष्ण की तुष्टी हुई तो उन सबों को भी तुष्टी होने लगी और उनकी भूख मिट गई । चूँकि दुर्वासा तथा उनके सारे व्यक्ति और कुछ खा नहीं सकते थे इसलिए पाण्डवों के यहाँ आये बिना ही चले गये इस प्रकार पाण्डव दुर्वासा के क्रोध से कृष्ण द्वारा बचा लिए गये । दुर्योधन ने यह सोचकर उनको भेजा था कि पाण्डव इतने लोगों को सत्कार नहीं कर सकेंगे , जिससे दुर्वासा क्रुद्ध होकर पाण्डवों को शाप दे  देंगे । किंतु कृष्ण ने अपने चाल से तथा अपनी सर्वज्ञता से पाण्डवों को इस संकट  से उबार लिया । 

53. नित्य नवीन   

    कृष्ण का सदैव स्मरण किया जाता है और लाखों भक्त उनके नाम का सदैव कीर्तन करते हैं तो भी भक्त गण कभी अघाते नहीं । उनमें न तो कृष्ण के विषय में चिंतन करने में ,और न उनके नाम कीर्तन में कभी कोई अरूचि उत्पन्न होती है । वे नये जोश से इस प्रक्रिया को जारी रखते हैं , अतएव कृष्ण नित्य नूतन हैं । कृष्ण ही क्यों कृष्ण का ज्ञान भी नूतन है । जो भगवद्गीता आज से 5000 वर्ष पूर्व सुनाई गई थी वह आज भी अनेकानेक लोगों द्वारा बारम्बार पठित है और आज भी उनमें से नया प्रकाश प्राप्त होता है । अतएव कृष्ण  तथा उनका नाम ,यश एवं गुण -उनसे सम्बधित सारी वस्तुएँ -नित्य नवीन हैं ।

    द्वारका की सारी रानियाँ लक्ष्मियाँ थीं । श्रीमद्भागवत में (1.11.33) में कहा गया है कि लक्ष्मियाँ अतिव चंचल होती हैं , अतएव उन्हें निरंतर पकड पाना कठिन है । इसलिए मनुष्य का भाग्य सदैव बदलता रहेगा । तो भी द्वारका में कृष्ण के सहवास के समय लक्ष्मियाँ क्षण भर के लिए भी उनका पीछा नहीं छोड पाईं । इसका अर्थ होता है कि कृष्ण का आकर्षण नित्य नवीन है , यहाँ तक कि लक्ष्मियाँ भी उनका साथ नहीं छोड सकतीं ।

   कृष्ण के नित्य नवीन आकर्षण स्वरूप के विषय में ललित-माधव में राधारनी कहती हैं कि कृष्ण महान मूर्तिकार हैं , क्योंकि वे स्त्रियों के सतीत्व को तरासने में अत्यंत पटु हैं । दूसरे शब्दों में , भले ही सती साध्वी स्त्रियाँ पतिपरायण बनी रहने के लिए वैदिक विधान का पालन क्यों न करें  , किंतु कृष्ण अपनी सुन्दरता की छेनी से उनके प्रस्तर स्वरूप सतीत्व को तोड देते हैं । कृष्ण की अधिकांश सखियाँ विवाहिता थीं  , किंतु क्योंकि विवाह के पूर्व से कृष्ण उनके मित्र थे , अतएव वे उनके मनोहारी आकर्षक स्वरूप को अपने विवाह के बाद भी भुला नहीं पाईं ।

54. सच्चिदानन्द विग्रह    

    कृष्ण का दिव्य शरीर नित्य,ज्ञानमय तथा आनन्दमय है । सत का अर्थ है समस्त देशकाल में विद्यमान रहना - सर्वव्यापि होना । चित् का अर्थ है ज्ञान से पूर्ण । कृष्ण को किसी से सीखना नहीं होता है। वे स्वतंत्र रूप से समस्त ज्ञान से पूर्ण हैं । आनन्द का अर्थ है समस्त प्रसन्नता के आगार मायावादी लोग सत् और चित् के ब्रह्मतेज में लीन होना चाहते हैं । किंतु आनन्द के अधिकांश भाग से जो कृष्ण के निहित रहता है वे वंचित रह जाते हैं ।भौतिक मोह, मिथ्या ,उपाधि,अनुरक्ति,विरक्ति तथा भौतिक तल्लिनता के कल्मष से मुक्त होकर ब्रह्म तेज में लीन होने के दिव्य आनन्द को भोगा जा सकता है । ब्रह्म की अनुभूति करने वाले में ये मूलभूत योग्यताएँ होनी चाहिए । भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य को प्रसन्नवस्था प्राप्त करनी चाहिए । यह वास्तविक प्रसन्नता नहीं अपितु चिंता से मुक्ति की भावना है । भले ही प्रसन्नता का पहला सिद्धांत सभी चिंताओं से मुक्ति हो ,किंतु यह वास्त्विक प्रसन्नता नहीं है । जो आत्म अनुभूति कर लेते हैं या ब्रह्मभूत हो जाते हैं ,वे अपने को प्रसन्नता के पद के लिए केवल तैयार ही करते हैं ; वास्तव में यह प्रसन्नता तो कृष्ण के संसर्ग में आने पर ही प्राप्त होती है । कृष्ण भावनामृत इतना पूर्ण होता है । कि इसमें ब्रह्म साक्षात्कार से प्राप्त दिव्य आनन्द भी निहित रहता है । यहाँ तक कि निर्विषेशवादी भी कृष्ण  के साकार रूप श्यामसुन्दर के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं ।

   ब्रह्मसंहिता के इस कथन से इसकी पुष्टि होती है कि ब्रह्म तेज कृष्ण के शरीर की रश्मियाँ हैं । ब्रह्मतेज कृष्ण की शक्ति का प्रदर्शन मात्र है । कृष्ण ब्रह्मतेज के उद्गम हैं जैसा कि उन्होंने स्वयं भगवद्गीता में पुष्टि की है । इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परम सत्य का निराकार स्वरूप चरम परिणति नहीं है , अपितु कृष्ण परम सत्य की चरम परिणति हैं । अत: वैष्णव सम्प्रदाय के सदस्य आध्यात्मिक सिद्धि की खोज करते हुए कभी भी ब्रह्म तेज में लीन होना नहीं चाहते । वे कृष्ण को आत्मसाक्षात्कार का चरम लक्ष्य मानते हैं । इसलिए कृष्ण परब्रह्म या परमेश्वर कहलाते हैं । श्रीयामुनाचार्य इस प्रकार से स्तुति करते हैं , हे प्रभु ! मैं मानता हूँ कि यह विराट ब्रह्माण्ड तथा इसके भीतर विराट् देश एवं काल भौतिक तत्वों के दश आवरणों में प्रच्छन्न हैं और इनमें से प्रत्येक आवरण पहले वाले से दश गुना बड़ा है । प्रकृति के तीनों गुण ,गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु ,महाविष्णु तथा उनके परे आध्यात्मिक आकाश तथा बैकुण्ठ तथा उसमें ब्रह्मज्योति- ये सब मिलकर आपकी शक्ति के लघु पदर्शन मात्र हैं ।"

55. समस्त योगसिद्धियों से युक्त    

    सिद्धि के अनेक मानदण्ड हैं पूर्ण योगियों द्वारा प्राप्त की जाने वाली चरम सिद्धियाँ आठ हैं -अणिमा,लघिमा ,गरिमा,महिमा,प्राप्ति,प्राकाम्य,इशिता ,वाशिता  तथा साथ ही आध्यात्मिक सिद्धियाँ कृष्ण के व्यक्तित्व में पूरी तरह पायी जाती हैं ।

56. कृष्ण की अचिंत्य शक्तियाँ    

      कृष्ण सर्वत्र विद्यमान हैं , न केवल इस ब्रह्माण्ड के भीतर ,न केवल समस्त जीवों के हृदयों में अपितु हर परमाणु के भीतर  भी विद्यमान हैं । महारानी कुंती ने जो स्तुति की है उसमें कृष्ण की इस अचिंत्य शक्ति का उल्लेख है । वे कुन्ती से बातें करते समय उत्तरा के गर्भ में प्रविष्ट हो गये जो अश्वत्थामा के परमाणु अस्त्र से भयभीत थीं । कृष्ण ब्रह्मा तथा शिव को भी मोहित करने वाले हैं और वे समस्त शरणागत भक्तों की उनके पापफलों से रक्षा कर सकते हैं । ये उनके कुछ अचिंत्य शक्ति के उदाहरण हैं ।

  इसलिए श्रील रूप गोस्वामी यह कहकर कृष्ण को सादर नमस्कार करते हैं , ' यह समस्त भौतिक प्रकृति इस समय मनुष्य रूप में विद्यमान  श्रीकृष्ण की  छाया मात्र है । उन्होंने नाना गायों ,बछड़ों तथा ग्वालबालों के रूप में अपना विस्तार किया है । और पुन: वे उन सबों में वे अपने चतुर्भुजी नारायण रुपमें प्रकट हुए हैं । उन्होंने लाखों ब्रह्माओं को आत्मसाक्षात्कार की शिक्षा दी है । इसलिए वे न केवल ब्रह्माण्ड के समस्त अधिश्वरों द्वारा , अपितु हर एक के द्वारा पूजित हैं । इसलिए मैं उन्हें भगवान् के रूप में स्वीकार करता हूँ । "

    जब स्वर्ग से पारिजात वृक्ष लाते समय इन्द्र कृष्ण से पराजित हो गया तो नारद ने इन्द्र से भेंट की और उसकी आलोचना करते हुए कहा, " अरे स्वर्ग के महान राजा इन्द्र ! कृष्ण पहले ही ब्रह्मा तथा शिव को पराजित कर चुके हैं । अतएव तुम जैसे नगण्य देवता के लिए क्या कहा जाय ? " निसन्देह नारद मुनि इन्द्र की आलोचना हँसी हँसी में कर रहे थे  और इन्द्र को इसका आनन्द आ रहा था । नारद के कथन से पुष्टि होती है कि कृष्ण जी ब्रह्मा तथा शिव को मोहित करने में समर्थ थे और इन्द्र को भी । अतएव इनसे भी क्षुद्र जीवों के साथ ऐसा करने की कृष्ण की शक्ति का तो कहना ही क्या ?

   पापकर्मों के फलों के कष्टों को कम करने में कृष्ण की शक्ति का वर्णन ब्रह्मसंहिंता में इस प्रकार हुआ है - " स्वर्ग  के राजा से लेकर चींटी तक को अपने पूर्व कर्मों का फल भोगना पड़ता है । किंतु कृष्ण का भक्त कृष्ण की कृपा से ऐसे सारे फलों से मुक्त कर दिया जाता है । " यह स्पष्ट रुप से तब सिद्ध हुआ जब कृष्ण अपने गुरु के पुत्र के मृत शरीर को वापस लाने यमराज के स्थान तक गये थे । कृष्ण के गुरु ने अनुरोध किया था कि कृष्ण उनके मृत पुत्र को वापस ला दें इसके लिए वे यमलोक गये जहाँ यमराज उस मृत पुत्र को लाकर अपने नियत्रंण में रखे हुए थे । कृष्ण ने तुरंत यमराज को आदेश दिया , "मेरे आदेश का पालन करो और इस आत्मा को मुझे लौटा दो । " इस घटना का तात्पर्य यह है कि ऐसे व्यक्ति को भी जो प्रकृति के विधानों में जकड़ा हुआ है ,प्रकृति के नियमानुसार यमराज द्वारा द्ण्डनीय है ,कृष्ण की कृपा से पूर्ण छुटकारा दिया जाता है ।

   शुकदेव गोस्वामी ने कृष्ण की अचिंत्य शक्तियों का वर्णन इस प्रकार किया है   - " कृष्ण मेरी बुद्धि को मोहित कर रहे हैं , क्योंकि वे अजन्मा होकर भी नन्द महाराज के पुत्र रुप में प्रकट हुए हैं । वे सर्वव्यापी हैं तो भी वे यशोदा की गोद में रहते हैं । वे सर्वव्यापी होकर भी यशोदा के प्रेम में बँधे हुए हैं । यद्यपि उनके अनंत रुप हैं , किंतु वे एक कृष्ण रुप में अपने माता-पिता नन्द-यशोदा के समक्ष विचर रहे हैं ।" ब्रह्मसंहिता में यह भी कहा गया है कि यद्यपि कृष्ण अपने दिव्य धाम गोलोक धाम में नित्य निवास करते हैं फिर भी वे सर्वत्र, यहाँ तक कि हर परमाणु के भीतर भी उपस्थित हैं ।

57. कृष्ण के शरीर से असंख्य ब्रह्माण्डों की सृष्टि   

    श्रीमद्भागवत ( 10.14.11) में ब्रह्माजी कहते हैं , " हे प्रभु ! मिथ्या अहंकार,बुद्धि ,मन,आकाश ,वायु,अग्नि,जल तथा पृथ्वी - ये सब इस ब्रह्माण्ड के भौतिक घटक हैं और यह ब्रह्माण्द एक विशाल पात्र की तरह है जिसमे6 मेरा शरीर तुच्छ परिमान का है । यद्यपि मैंने अनेक ब्रह्मान्दों में से एक की सृष्टि की है , किंरु आपके शरीर के छिद्रों से असंख्य ब्रह्माण्ड निकल रहे हैं और जा रहे हैं जिस तरह धूप में छोटे -छोटे कण हिलते - जुलते दिखलाई पड़ते हैं । मेरा विचार है कि मैं  आपके समक्ष अत्यंत नगण्य हूँ , अतएव आपसे क्षामा चाहता हूँ । आप मुझ पर कृपालु हों । "

     यदि कोई केवल एक ब्रह्माण्ड का लेखा -जोखा ले तो उसमें विचित्र -विचित्र वस्तुओं के अनेकानेक संयोग मिलेंगे  , क्योंकि उसमें असंख्य लिक , असंख्य निवास तथा देव स्थान हैं । ब्रह्माण्ड का व्यास 40 करोड़ मील है  और इसमें अनेक अगाध स्थान हैं जिन्हें पाताल लोक कहा जाता है । यद्यपि क्रश्ण इन सबके उद्गम हैं तो भी वे वृन्दावन में अपनी अचिंत्य शक्तियों का प्रदर्शन करते देखे जाते हैं । अतएव ऐसे सर्वशक्तिमान अचिंत्य शक्तियों से युक्त ईश्वर की अराधना करने में कौन समर्थ हो स्कता है ?

58. समस्त अवतारों के मूल उद्गम   

   जयदेव गोस्वामी कृत गीत गोविन्द में इस तरह का गीत आता है । , " भगवान् मत्स्य रुप धारण करके वेदों की रक्षा की और कच्छप रुप में सारे ब्रह्माण्ड को अपनी पीठ पर धारण किया । उन्होंने वाराह रुप से जल से इस पृथ्वी को उपर उठाया है । उन्होंने नृसिंह रुप में हिरण्यकशिपु का वध किया । उन्होंने वामन रुप से महाराज बलि को छला है । उन्होंने  परशुराम के रुप में क्षत्रियों का नाश किया उन्होंने भगवान् राम के रुप में सभी असुरों को मारा है । उन्होंने बलराम के रुप में विशाल हल धारण किया है । कल्कि रुप में उन्होंने सारे नास्तिक पुरुषों का संहार करेंगे । और भगवान् बुद्ध के रुप में बेचारे पशुओं की रक्षा की है । ( भगवान् के इन समस्त अवतारों का वर्णन श्रीमद्भागवत(1.2.3) में हुआ है । ये कुछ वर्णन कृष्ण से उद्भूत अवतारों के हैं और श्रीमद्भागवत से पता चलता है कि कृष्ण के शरीर से सदैव असंख्य अवतार होते रहते हैं जिस तरह समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं  जिस तरह लहरों की गिनती कर पाना सम्भव नहीं है उसी प्रकार भगवान् के शरीर से निकलने वाले अवतारों की भी कोई गणना सम्भव नहीं  है ।

59. वध किये गये शत्रुओं के भी मोक्षदाता कृष्ण    

    मोक्ष का अन्य नाम अपवर्ग है अपवर्ग पवर्ग का विलोम है जिसका अर्थ है  संसार की विविध दुखमय स्थितियाँ  । पवर्ग शब्द संस्कृत के पाँच अक्षरों से मिलकर बना है -प,फ,ब,भ,म । ये अक्षर पाँच निमनलिखित स्थितियों को बतलाने वाले शब्दों के प्रथम अक्षर हैं । पहला अक्षर प पराभव या परिश्रम का सूचक है । जीवन के भौतिक संघर्ष में हम पराभव ही पाते हैं वास्तव में हमें जन्म,मृत्यु,जरा तथा व्याधि को जीतना होता है , किंतु इन दुखमय स्थितियों पर विजय पाने की कोई सम्भावना नहीं रह्ती ,अतएव माया के मोह के कारण हमें पराभव (हार) प्राप्त होती है । अगला अक्षर फ से लिया गया है । जब मनुष्य थक जाता है परिश्रम करते -करते तो मुँह में फेन आ जाता है (सामान्यतया घोंड़ों के मुँह में ) , ब अक्षर बन्धन से , भ भय से तथा म मृत्यु से लिया गया है । अतएव पवर्ग सूचक है जीवन संघर्ष करते हुए पराभव(परिश्रम),थकान(फेन),बन्धन,भय तथा अंत में मृत्यु का । अपवर्ग इन स्थितियों को निरस्त करने का सूचक है । कृष्ण अपवर्ग के अर्थात् मोक्ष के दाता कहे जाते हैं ।

    निर्विशेषवादियों एवं कृष्ण  के शत्रुओं के लिए मोक्ष का अर्थ ब्रह्म में लीन होना है । असुर तथा मायावादी कभी कृष्ण की परवाह नहीं करते ,किंतु कृष्ण इतने दयालु हैं कि वे अपने शत्रुओं एवं मायावादियों तक को भी मोक्ष प्रदान कर देते हैं । इस सम्बध में निम्नलिखित कथन पाया जाता है , '  हे मुरारि (कृष्ण) ! कितना आश्चर्य है कि देवताओं से सदा द्वेष करने वाले असुर जो आपके सैन्य व्यूह में प्रवेश करने में असफल रहे हैं मित्र मण्डल या सूर्यमण्डल में प्रवेश कर गये हैं । मित्र का प्रयोग श्लेष की भाँति हुआ है । मित्र का अर्थ है " सूर्य मण्डल" । जिन असुरों ने कृष्ण को शत्रु मान कर विरोध किया था वे उनके सैन्य व्यूह में प्रवेश करना चाहते थे , किंतु वे ऐसा न कर सके और युद्ध में मारे जाने से मित्र लोक में प्रविष्ट हुए । दूसरे शब्दों , वे ब्रह्म ज्योति में प्रविष्ट हुए यहाँ पर सूर्य लोक का उदाहरण दिया गया है , क्योंकि सूर्य की तरह  आध्यात्मिक आकाश में जहाँ असंख्य देद्दीप्यमान बैकुण्ठलोक हैं , सदा प्रकाशमान रहते हैं । कृष्ण के शत्रु मारे जाने के बाद कृष्ण के व्यूह में प्रविष्ट होने की बजाय ब्रह्मज्योति  में प्रविष्ठ हुए । यह कृष्ण की कृपा है ।, इसीलिए वे शत्रुओं के भी उद्धारक कहलाते हैं ।

60. परमहंसों के आकर्षक   

     ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं कि कृष्ण ने किस प्रकार शुकदेव गोस्वामी तथा कुमारों जैसे महान् मुक्तात्माओं (परमहंसों) को भी आकृष्ट किया । इस सन्दर्भ में कुमारों का निम्नलिखित कथन दिया जा रहा है " यह कितनी विचित्र बात है कि हम पूर्ण मुक्त ,इच्छा रहित तथा परमहंस अवस्था को प्राप्त होते हुए भी राधा-कृष्ण की लीलाओं का आस्वादन करने के लिए लालायित रहते हैं । "

 

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