भगवान् श्रीकृष्ण

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21.परम पवित्र   

 

    परम पवित्र दो प्रकार की होती है । प्रथम प्रकार की पवित्रता होने पर मनुष्य किसी पापी का उद्धार कर सकता  है । दूसरी प्रकर की पवित्रता होने पर वह कोई ऐसा काम नहीं करता  जो अपवित्र हो । जिस व्यक्ति में इन दोनों गुणों में से कोई एक गुण होता है वह परम पवित्र कहलाता है । कृष्ण में दोनों गुण विद्यमान हैं - वे सभी पापी बद्ध आतमाओं का उद्धार कर सकते है और साथ ही कोई ऐसा काम नहीं करते जिससे वे दूषित हो सकें ।

    इस संदर्भ में विदुर ने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को पारिवारिक सम्बधों से विरक्त कराने के प्रयास में कहा था , "हे बन्धु ! आप सर्व प्रथम अपने मन को उन कृष्ण के चरणारविन्द में स्थिर करें जिनकी पूजा बड-बड़े ऋषियों -मुनियों द्वारा सुन्दर विद्वत्तापूर्ण छन्दों में की जाती है । कृष्ण समस्त उद्धारकों में सर्वोंपरि हैं । निसंदेह, शिव तथा ब्रह्मा जैसे बड़े-बड़े देवता हैं ,किंतु उद्धारक के रूप में उनका पद कृष्ण की कृपा पर निर्भर करता है ।" अतएव विदुर अपने ज्येष्ठ भ्राता धृतराष्ट्र  को एक मात्र कृष्ण में चित्त स्थिर करने और उनकी पूजा करने की सलाह दी ।यदि कोई केवला कृष्ण के ही नाम का कीर्तन किया करे तो यह हरिनाम उसके हृदय में प्रखर सूर्य की भांती उदित होगा और सारे अज्ञान रूपी अन्धकार को भगा देगा । इसलिए विदुर ने धृतराष्ट्र को सलाह दी कि वे सदैव कृष्ण का चिंतन करें जिससे पापकर्मों की कल्मष राशि तुरंत धुल जायेगी । भगव्द्गीता में भी अर्जुन ने कृष्ण को परम ब्रह्म ,परम धाम, पवित्रम् कहा है । कृष्ण की चरम पवित्रता प्रदर्शित करने वाले अन्य अनेक दृष्टांत हैं ।

22.आत्मसंयमी(वशी)   

 

    जिस व्यक्ति ने अपनी इन्दियों को पूरी तरह से वश में कर लिया है वह वशी अर्थात् जितेन्द्रिय कहलाता है । इस सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत्अ में कहा गया , " कृष्ण की सोलहों हजार पत्नियां इतनी सुन्दर थीं कि उनकी उस्कान तथा लज्जा से शिवजी जैसे महान देवताओं के भी मन मोहित हो जाते थे । किंतु वे पत्नियां अपने आकर्षक स्त्री - आचरण से कृष्ण के मन को तनिक भी विचलित नहीं कर सकीं ।" कृष्ण की हजारों पत्नियों में से हर एक यह सोचती थीं कि क़ृष्ण उसके स्त्री-सौन्दर्य पर मोहित हैं , किंतु बात ऐसी नहीं थी । अतएव कृष्ण समस्त इन्द्रियों के नियामक हैं और भगवद्गीता में उन्हें हृषिकेश कहा गया है ।

23.स्थिर   

   जो व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य की पूर्ति होने तक निरतंर कार्य करता रहता है  वह स्थिर कहलाता है ।

     एक बार कृष्ण तथा राजा जम्बवान में यौद्ध हुआ क्योंकि कृष्ण उससे स्यमंतक मणि लेना चाहते थे । राजा ने जंगल में छिपने की कोशिश की किंतु कृष्ण हतोत्साहित नहीं हुए । उन्होंने राजा को बड़ी स्थिरता से ढूंढ़ निकाला और अंत में मणि प्राप्त  कर ली  ।

24.सहिष्णु   

    जो व्यक्ति सभी तरह के कष्टों  को , चाहे वे कितने ही असह्य क्यों न हों , सह लेता है वह सहिष्णु कहलाता है । जब कृष्ण गुरुकुल में रह रहे थे । तो वे अपने गुरु की सेवा करते समय सभी प्रकार के कष्ट झेलने में तनिक भी सकुचाये नहीं यद्यपि उनका शरीर अत्यन्त मृदु तथा कोमल था । शिष्य का कर्तव्य है कि वह सारे कष्टों को सहते हुए अपने गुरु की  सब तरह की सेवा करे । गुरुकुल में रहते हुए शिष्य को द्वार -द्वार से भिक्षा मांग कर गुरु के पास लानी होनी होती है । जब प्रसाद का वितरण होता है तो हर शिष्य को बुला कर प्रसाद ग्रहण करने को कहना होता है । यदि गुरु शिष्य को प्रसाद देने के लिए बुलाना भुल जाय तो शास्त्रों के अनुसार शिष्य का कर्तव्य है कि उस दिन अपने -आप भोजन न करके उपवास करे  ऐसे बहुत से नियम हैं । कभी-कभी कृष्ण लकड़ी लाने जंगल भी जाते थे ।

25.क्षमाशील   

  जो व्यक्ति विपक्षी के सब अपराधों को क्षमा कर सकता है वह क्षमाशील कहलाता है ।

       भगवान् श्रीकृष्ण के क्षमाशीलता का वर्णन शिशुपाल वध में मिलता है कि किस तरह  वे शिशुपाल के वध को टालते रहे । शिशुपाल चेदि देश का राजा था ।यद्यपि वह कृष्ण का मौसेरा भाई था , किंतु कृष्ण से सदैव द्वैष रखता था । जब भी दोनो मिलते थे शिशुपाल कृष्ण को अपमानित करने की ताक में रहता था और जितना हो सके भद्दी-भद्दी बातें करता । किंतु महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब शिशुपाल कृष्ण को गालियां बकने लगा  तो वे उस पर ध्यान न देते हुए मौन बने रहे । यज्ञ स्थल के कुछ लोग शिशुपाल को मार डालने के लिए उद्यत हुए , किंतु कृष्ण ने उन्हें रोक दिया । वे इतने क्षमाशील थे ! ऐसा कहा जाता है कि  जब बादल गरजते हैं तो बलशाली सिंह अपनी घोर गर्जना से उसका उत्तर देता है किंतु जब मूर्ख सियार आवाज करते हैं तो सिंह उसकी ओर ध्यान भी नहीं देता ।

     श्रीयामुनाचार्य  श्रीकृष्ण की क्षमाशीलता की प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं " हे प्रभु रामचन्द्र ! आप इतने दयालु हैं कि आपने जानकी के चुचुकों पर चोंच मारने वाले कौवे को इसलिए क्षमा कर दिया, क्योंकि वह आपके समक्ष नतमस्तक था ।" परंतु भगवान् कृष्ण क्षमाशीलता में श्रीरामचन्द्र से भी बढ़कर हैं , क्योंकि शिशुपाल सदैव कृष्ण का अपमान करता रहा । फिर भी क्रष्न इतने दयालु थे कि उन्होंने शिशुपाल को अपना तादात्म्य प्रदान किया । इससे हमें पता चलता है कि ब्रह्मतेज में तल्लीन होने पर अद्वैतवादी लक्ष्य कोई कठिन समस्या नहीं है । शिशुपाल जैसे व्यक्ति भी जो निरंतर कृष्ण से शत्रुता रखते थे इस मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं ।

26.गम्भीर   

  जो व्यक्ति किसी से अपने मन की बात नहीं कहता अतह्वा जिसकी मन की गति तथा कार्य-योजना को समझना कठिन हो, वह गम्भीर कहलाता है । जब ब्रह्मा के द्वारा कृष्ण के प्रति अपराध हो चुका तो ब्रह्मा ने उनसे क्षमा याचना की । उन्होंने उत्तम स्तुति की , किंतु अंत तक वे यह नहीं समझ पाये कि कृष्ण प्रसन्न हुए या अप्रसन्न बने रहे । दूसरे शब्दों में , कृष्ण इतने गम्भीर थे कि उन्होंने ब्रह्मा की स्तुति पर ध्यान नहीं दिया । कृष्ण की गम्भीर्ता का दूसरा उदाहरण राधारानी के प्रति उनके प्रेम व्यापार का है । वे राधारानी के प्रति अपने प्रेम के विषय में सदैव अत्यंत मौन रहते थे यहां तक कि उनके बड़े भाई एवं चिरसंगी बलदेव तक उनके मनोभावों को उनकी गम्भीरता के कारण नहीं समझ पाये ।

27.आत्मतुष्ट (धृतिमान)   

     जो व्यक्ति अपने में पूरी तरह संतुष्ट रहता है , जिसमें कोई लालसा नहीं होती है , जो किसी विपदा के उत्पन्न होने पर भी विचलित नहीं होता वह धृतिमान कहलाता है । कृष्ण की आत्मतुष्टि का उदाहरण तब दिखा जब अर्जुन तथा भीम के साथ मगध के दुर्जेय राजा जरासंध को ललकारने गये थे और जरासंध के वध का श्रेय स्वंय न लेकर भीम को प्रदान किया था । इससे यह समझा जा सकता है कि कृष्ण को यश की तनिक भी परवाह नहीं रहती , यद्यपि उनसे बढ़कर यशस्वी अन्य कोई नहीं है । उनके विचलित न होने का उदाहरण तब मिलता है जब शिशुपाल उन्हें गाली बक रहा था । महाराज युधिष्टिर के यज्ञस्थल पर एकत्र सारे राजा तथा ब्राह्मण क्षुब्ध हो गये और तुरंत उत्तम स्तुतियों द्वारा कृष्ण को प्रसन्न करना चाहते थे , किंतु इन राजाओं तथा ब्राह्मणों को कृष्ण के मुख पर किसी प्रकार का क्षोभ दृष्टिगोचर नहीं हुआ ।

28.संतुलन रखने वाला (समदर्शी)   

       जो व्यक्ति राग तथा द्वेष से अप्रभावित रहता है उसे संतुलन रखने वाला या समदर्शी कहते हैं ।

       कृष्ण के समभाव का उदाहरण श्रीमद्भागवत में (10.16.33) सौ मुखवाले कालिय को प्रताड़ित करने के प्रसंग में प्राप्त होता है । जब कालिय को कठोर दण्ड दिया जा रहा था तो उसकी समस्त पत्नियां भगवान् के समक्ष प्रकट होकर प्रार्थना करने लगीं , हे प्रभु! आप समस्त प्रकार के आसुरी जीवों को दण्डित करने के लिए प्रकट हुए हैं । हमारा पति यह कालिय अत्यंत पातकि है , अत: आपके द्वारा यह दिया जाने वाला दंड सर्वथा उपयुक्त है । हम जानती हैं कि आपके शत्रुओं को दिया जाने वाला दंड तथा अपने पुत्रों के प्रति किया जाने वाला व्यवहार दोनों एक समान होते हैं । हम जानती हैं कि इस अभागे जीव के भावी कल्याण को सोचते हुए आपने इसे दण्ड दिया है "

     एक अन्य स्तुति में कहा गया है , " हे भगवान् कृष्ण ! हे यदु-वंशियों में सर्वश्रेष्ठ ! आप इतने निष्पक्ष हैं कि यदि आपका शत्रु भी योग्य है तो आप उसे पुरस्कृत करेंगे और यदि आपका कोई पुत्र दोषी है तो आप उसे दण्ड देते हैं । यह आपका ही कार्य है , क्योंकि आप ब्रह्माण्डों के परम स्रष्टा हैं । आपमें तनिक भी पक्षपात नहीं । यदि किसी को आपमें लेशमात्र भी भी पक्षपात दिखता है तो वह निश्चित रुप से भूल कर रहा है । "

29.वदान्य (उदार)   

      जो व्यक्ति अत्यंत दान देता है वह उदार या वदान्य कहलाता है । जब कृष्ण द्वारका पर शासन कर रहे थे तो वे इतने  वदान्य  एवं दानी थे कि उनके दान की कोई सीमा नहीं थी । यहां तक की चिंतामणि,कल्पवृक्ष एवं सुरभी गायों के ऐश्वर्य से युक्त बैकुण्ठ का भी अतिक्रमण हो चुका था । भगवान् कृष्ण के बैकुण्ठ में , जिसे गोलोक वृन्दावन कहते हैं असिम मात्रा में दूध देने वाली सुरभी गायें रहती हैं । वहां पर कल्पवृक्ष हैं जो कितनी भी मात्रा में फल प्राप्त किये जा सकते हैं । वहां की भूमि चिंतामणि से बनी हुई है जिससे यदि लोहा छू जाय तो वह सोना बन जाय । दूसरे शब्दों में , यद्यपि कृष्ण के धाम बैंकुण्ठ लोक में हर वस्तु अतिव ऐश्वर्यवान है तो भी जब कृष्ण द्वारका में थे तो उनका दान गोलोक वृन्दावन के ऐशवर्य से बढ़कर था । कृष्ण जहां भी रहते हैं वहीं गोलोक वृन्दावन का असीम ऐश्वर्य स्वत: पाया जाता है ।

     यह भी कहा गय है कि जब भगवान् कृष्ण द्वारका में रह रहे थे तो उन्होंने 16108 रुपों में अपना विस्तार किया था और हर विस्तार (अंश) में अपनी रानियों के साथ हर महल में निवास करता था । कृष्ण उन महलों में अपनी रानियों के साथ न केवल सुखपूर्क रह रहे थे बल्कि वे हर महल से सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से पूरी तरह सज्जित 13054 गायों के समूह का दान भी दे रहे थे । कृष्ण के 16108 महलों में से हर एक से नित्य इतनी गौवें दान में दी जाती थीं जिसका अर्थ हुआ 13054×16108 गायें प्रतिदिन । इतनी बड़ी संख्यां में दान दी गई गौंवों के मूल्य का अनुमान लगा पाना सम्भव नहीं , किंतु जब कृष्ण द्वारका में शासन कर रहे थे तो उनका यही दैनिक कार्यक्रम था ।

30.धार्मिक   

   जब कोई व्यक्ति शास्त्रानुमोदित धर्म के नियमों का पालन करता है और अन्यों को भी उन्हीं नियमों की शिक्षा देता है तो वह धार्मिक  कहलाता है । किसी भी पंथ को स्वीकार कर लेना मात्र ही धार्मिकता की निशानी नहीं होती । मनुष्य को धार्मिक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना चाहिए  और अपने निजी उदाहरणों से अन्यों को शिक्षा देनी चाहिए । ऐसे व्यक्ति को धार्मिक माना जाना चाहिए ।

     जब कृष्ण इस धराधाम में थे तो अधर्म का नाम न था । इस प्रसंग में नारद मुनि ने एक बार हंसी में कृष्ण को इस प्रकार सम्बोधित किया , " हे ग्वाल बालों के प्रभु ! आपके बैल (धर्म का प्रतिक है) चारागाहों में चरते समय और अपने चार पैरों पर चलते हुए अधर्म रुपी घास का सफाया कर चुके हैं ।" दूसरे शब्दों में , कृष्ण की कृपा से धार्मिक सिद्धांतों  की ऐसी देखरेख की जाती थी कि अधार्मिक कार्यों के लिए स्थान ही नहीं रह पाता था ।

      कहा जाता है कि कृष्ण विविध प्रकार के यज्ञ करते रहते थे जिनमें स्वर्गलोक के देवताओं को आमंत्रित करते थे , जिससे देवता अपनी प्रियतमाओं से दूर हो जाते थे । इसीलिए पति-वियोग से खिन्न देव पत्नियां कलियुग में प्रकट होने वाले कृष्ण के नवें अवतार भगवान् बुद्ध के आविर्भाव के लिए प्रार्थना करने लगीं । दूसरे शब्दों में , वे भगवान् के आने से प्रसन्न होने के बजाय कृष्ण के नौंवे अवतार भगवान् बुद्ध  के लिए प्रार्थना करने लगीं क्योंकि बुद्ध ने पशुवद्ध को प्रोत्साहन न देकर  वेदवर्णित अनुष्ठानों एवं यज्ञों को बन्द करा दिया । देवांगनाओं ने सोचा कि यदि भगवान् बुद्ध प्रकट होंगे तो समस्त प्रकार के यज्ञ बन्द हो जायेंगे जिससे उनके पतियों को ऐसे यज्ञों में न निमंत्रण मिलेगा और न वे उनसे पृथक होंगी ।

     कभी -कभी पूछा जाता है , " आजकल देवतागण स्वर्गलोक से इस धरालोक पर क्यों नहीं आते ? इसका सीधा सादा उत्तर है कि जब भगवान् बुद्ध प्रकट हुए और पशु वध रोकने  के लिए इस धरा पर यज्ञ को तिरस्कार की दृष्टि से देखने लगे तब से यज्ञ करने की विधि बन्द हो गई , अतएव देवतागण यहां आने की परवाह नहीं करते ।

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