आयुर्वेद 4

इस पेज में क्या-क्या हैं--?

 1- नारंगी,2-गुलाह्जारा, 3-एरण्ड (अरण्डी), 4-पिप्पलीनाम,5-नारियल,6-पीपल,7- ओंगा सफेद डण्डा का ,8-मुलेठी,9-ओंगा लाल डण्डी का ,

10-अमलतास,11-बिल्व , 12- कचनार , 13-मोरछल्ली , 14- शहतूत , 15-सिंघाडा ,16- कलिहारी , 17- सुपारी , 18- मेंहदी , 19- सत्यानाशी |

परधर्म | ग्रंथालय | चार नियम | चित्र प्रदर्शनी | इस्कान वेब जाल | गुरू परम्परा | दर्शन

  नारंगी

नाम- सं - नारंगः | हिं - नारंगी , संतरा | बं - नेरंगा लेंबू | म. - नारिंग | गु. - नारंगि लिंबू | अं. - ओरेंज | फा. - नारंग नारंगी प्रसिद्ध फल है | नारंगी शीतल होती है , बल को बढती है चित्त को प्रसन्न करती है | नारंगी के अर्क में काली मिर्च ,सेंधा नमक पीस कर डाले और पीवे तो पीत्त से उपद्रव शांत होता है | तथा नारगी अर्क चार तोला , इलायची 5 ,मिश्री 1 तोला पीस कर मिलावे | इसके पीने से पीत्त जनित  दाह शांत हो जाती  है | नारंगी के छिलके का तेल छाजन और मुख छाया (झाँई) को दूर करती है | नारंगी के अन्य भी  अनेक गुण हैं | बहुत मीठी नारंगी  प्रतिदिन तीसरे पहर दिन में खाने से बल की वृद्धी होती है  तथा हृदय के अनेक रोग ,तृषा , पित्त ज्वर , रक्त पित्त मन्दाग्नि रोग शांत होते हैं | नारंगी  का रस और जवाखार के सेवन से संधिवात में फायदा होता है | नारंगी का रस पित्त के वमन को दूर करता है | नारंगी के छिलके पेट के किडे को दूर करता है | नारंगी का गूदा बांधने से पुराना नासूर भर जाता है | नारंगी का रस खून की खराबी को दूर करता है | नारंगी का रस नाक में डालने से नाक के खून को बन्द करता है | नारंगी से संक्रामक रोगों का असर नहीं होता | नारंगी का अचार बिना तेल का अजीर्ण,ज्वर,और तृषा को दूर करता है | इससे भोजन भी जल्दी पचता है |


गुलहजारा

गुलहजारा की पत्ती का रस अथवा फूलों का अर्क निचोड कर उसमें रूद्राक्ष को घिस कर जीभ पर दिन में दो - तीन बार लगाने से मधुर रोग जाता रहता है |


एरण्ड

नाम - सं . - एरण्ड , व्याघ्रपुच्छ | हिं .- रेंड , सफेद एरण्ड, लाल एरण्ड ,बडा एरण्ड | बं . - भेरण्डा , सादारेडो , लाल भेडो, बड भेरण्ड | म.- एरण्ड ,एरण्डडोली | गु.- घोली एरण्डो रातो एड | अं- कास्टर आईल प्लांट कास्टर सीड | फ.- बेद अंजीर , सुख्में बेद अंजीर | एरण्ड वृक्ष को अण्डी वृक्ष भी कहते हैं | इसको रेंड भी कहते हैं | इसका वृक्ष कमजोर होता है | फलों की मिंगी से सफेद तेल निकाला जाता है | इस तेल को साफ करते हैं | तब इस तेल को कस्ट्राइल कहते हैं | कस्ट्राइल जुलाब के लिए अच्छा होता है | इसका प्रभव गरम खुश्क होता है | पेट को नरम कर देता है | रद्दी मवाद को गला देता है | गठिया ,जलोदर और पक्षघात को गुण करता है | रेंड की कच्ची ककरी चार तोला पीसकर उसमे मासे भर सेंधानमक डाले और जामुन अथवा अनार का सिरका एक तोला डालकर पीवे अथवा रेंड की ककरी पीस कर सेंधा नमक अथवा मिश्री के साथ खाय तो दाह गरमी शांत हो जाय | गुल्म रोग दूर हो और पेट की बादी जाती रहे | रेंड में अन्य भी अनेक गुण हैं | उपर


पिप्पलीनाम

नाम- सं.- पिप्पली | हिं.- पीपल | बं.- पिपल | म.- पिपली | गु.- लिडि पीपल | फा.- पिलपिल दराज | अरबी में- डरफिल अं. - लाग पाप्पर | विवरण - पीपल की बेल जंगलवार और मगध देश में अधिकता से उत्पन्न होती है | इसके पत्ते नागवल्ली अर्थात पान के समान होते हैं | गुण - पीपल अग्नी को दिप्त करने वाली , वीर्य को उत्पन्न करने वाली ,पाक में स्वादिष्ठ ,रसायन किचिंत उष्ण ,चरपरी,स्निग्ध ,वात कफ नाशक , हल्की दस्त लाने वाली तथा श्वास ,कास ,उदर रोग,ज्वर,कुष्ठ,प्रमेह ,गुल्म,अर्श प्लीहा,शूल और आमवात को नष्ट कर्ने वाली है |
कच्ची पीपल- कफ को उत्पन्न करने वाली ,स्निग्ध , शीतल मधुर ,भारी,पीत्त को शांत करने वाली तथा सुखी पीपल पित्त कारक है | मधुयक्त पीपल - मेदा रोग ,,कफ,श्वास,कास और ज्वरनाशक एवं वीर्यवर्धक ,मेधाजनक तथा अग्निकारक है | गुड मिश्रित पीपल जीर्ण ज्वर ,हृदय रोग, मन्दगिनी,कास,अजीर्ण , अरूचि ,पाण्डु रोग और कृमि नाशक है | पीपल का चूर्ण और सोंठ का चूर्ण गुड मिलाकर खाने से आमसूल ,अजीर्ण और शोठ रोग दूर होता है पीपल को नीम के रस में उबाल कर नाश लेने से अपस्मार (मृगी) और उसके काडे में शहद मिलाकर पीने से वात ज्वर ,,कफज्वर नष्ट होते हैं | शहद में पीपल का चूर्ण मिलाकर चाटने से मूर्च्छा रोग दूर होता है | आठ पहर तक घोटा हुआ पीपर का चूर्ण शहद के साथ जीर्ण ज्वर को दूर करता है | पीपल का चूर्ण शहद के साथ प्रसूता को चटाया जाता है जिससे कोई रोग नहीं होने पाता | पीपल को गाय के गोबर के रस में घिस कर आँजने से रतोंधि दूर होती है |
उपर


नारियल

नाम - सं. - नारिकेल | हिं.- नरियल या नारियल | बं.- नारिकेल अथवा नारिकोल | म.- श्रीफल या नारल | गु.- नालीयर| अरबी- नारजिल | फा- जोजहिन्दी--नारीगल | अं.- कोकोनट विवरण- नारियल का वृक्ष बहुत बडा होता है | आकार ताड और खजुर की तरह होता है | यह पूर्व की ओर कलकत्ता,जगन्नाथ पुरी आदि में अधिकतर होता है | विशेषकर नदी या समुद्र तट पर अधिक होता है | इस वृक्ष में शाखा नहीं होती , उपर के भाग में खजुर के पत्ते के समान पत्ते होते हैं | जब सुख जाते हैं फल तो भितरी भाग की मिंगी को खोपडा या गोला कहते हैं | यह मंगल कार्यों में अधिकतर लिया जाता है | फल इसमें प्रायः लगाने के 8 वर्ष बाद आता है | इसके पत्तों की सींको की झाडू ,फल की जटा की मजबूत रस्सी और पाँवपाश बनाये जाते हैं | इसकी रस्सी जल में जल्दी नहीं सड्ती इसके भितर के गोले से तेल निकलता है | नारीयल का तेल लगाने, साबुन बनाने , और शिर में लगाने , और खाने के काम में विशेष व्यवहार किया जाता है | गुण - नारीयल मधुर , भारी , स्निग्ध,शीतल हृदय हितकारी ,पुष्टीकारक , बस्ती शोधक ,रक्तपित्तनाशक ,वीर्य वर्धक ,स्वादिष्ट विष्टम्भकारक ,दुर्जर , मदकारक ,वात नाशक , और कृमिवर्धक है | अशकफ, क्षय , रूधिर दोष को नष्ट करने वाला है | कोमल नारियल विशेषकर पित्तज्वर ,रूधिर विकार, तृषा, वमन , दाह , और रक्त पीत रोगों को नष्ट करता है | पका नारियल - दाह कारक ,पीत्तजनक , भारी ,वीर्यवर्धक,और पुष्टीकारक है | शुष्क नारियल कठिनता से पचने वाला ,दाह कारक भारी ,स्निग्ध ,भलस्तम्भन तथा रूचिदायक है | नारियल के जल के गुण - स्निग्ध , स्वादिष्ट, भारी, शीतल हृदय हितकारी, दीपन ,बस्ती शोधक , वीर्यवर्धक , पित्तनिवारक प्यास नाशक और वात नाशक है | यह वात ,कफ, गुल्म,श्वास कास और अरूचि को नाश करता है | तथा इससे वमन ,मूर्च्छा,पित्तज्वर दूर होता है | नारियल पुष्प - शीतल तथा रक्तातिसार ,रक्त ,पित्त ,प्रमेह और सोमरोग नाशक है | नारिकेल पुष्प जल - भारी , वीर्यवर्द्धक,तत्काल मदकारक ,स्निग्ध,अम्ल,कफकारक ,कृमि और वात नाशक है | नारियल की ताडी - अत्यंत स्निग्ध , मदकारक , भारी, वीर्यवर्द्धक है | वही जल दोपहर के बाद अम्लभाव युक्त होकर कफकारक ,पित्तजनक और कृमिनाशक है | नारियल तेल- बाजीकरण भारी , क्षीण धातु वाले पुरूषों को हितकर ,पुष्टिकारक ,वातपित्तनाशक तथा मूत्राघात,प्रमेह,श्वास ,कास,क्षत, राजयक्ष्मा और मेधा हितकारी है | मधु नारियल के गुण - शीतल, मधुर , पुष्टिकारक , बलकारक ,रूचिदायक , अग्निप्रदीपक , कांतीजनक , कृमिकारक , स्निग्ध , कफ को कुपित करने वाला , आमकारक कामवर्द्धक , दाह नाशक और तृषा,पित्त,श्रम,वात तथा अतिसार रोग निवारक है | वायु के जकड जाने पर - कच्चे नारियल को पीस कर रस निकाल कर पकावे, पकने पर जो तेल निकले उसमे कालीमिर्च का चूर्ण मिलाकर लगावे | मूसा के विष पर - नारियल की छाल मूली के रस में घिस कर लेप करना चाहिये |नहरूंआ पर - नारियल के अन्दर थोडा नौसादर भर कर शाम को रख दे ,प्रतः उसकी गिरी खाय और जल पीवे ,दिन भर कुछ न खाये ,किंतु शाम को स्नान करके दहीभात खाय | तृषा और वमन पर - नारियल की जटा जलाकर पानी में बुझावे ,बाद में पानी छान कर पीये | खुजली,दाद और चम्बल पर - नारियल के खोपडे का टुकडा-टुकडा कर पाताल यंत्र से तेल निकाले और लगावे | उरोग्रह और हृदयरोग पर - नारियल का पानी पांच तोला ,भुनी हुई हल्दी का चूर्ण 1|| मासा और 2 तोला घी , सब चीजें मिलाकर पीना चाहिये | शूल पर - एक पानीदार नारियल सेंधानमक भर कर हंडी में भर कर कसोरा से ढक दे , सकोरा और हंडी का किनारा मिट्टी से बन्द कर कंडों में फूँक दे | बाद में ठंडा होने पर नारियल को नमक सहित चूर्ण कर चोटी पीपल का चूर्ण मिलाकर सेवन करे | मूत्र कृछ्र में - नारियल का पानी ,निर्मली ,छोटी इलायची का चूर्ण और शक्कर पीने से शीघ्र लाभ होता है | रक्तपित्त में - नारियल के पानी में धनिया पीस कर शक्कर के साथ पीना चाहिये | अतिसार (दस्त) में - नारियल के पानी में जीरा पीस कर पीना चाहिये | प्रमेह पर - नारियल के जल में हल्दी और आँवले का चूर्ण डाल कर पीने से अच्छा होता है |

उपर


                                                                 पीपल वृक्ष
नाम - सं.- अश्वत्थ , हिं.- पीपल वृक्ष ,बं- अश्वत्थ , गु.- शीतगाछ ,म.- पीपल , अं - पब्लर, फा. - दरख्त लरजाँ | पीपल का वृक्ष बडा होता है | उसमें जल का अंश सब वृक्षों से अधिक होता है | इसके कोमल पत्तों ( कोंपल) में मिट्टी की सरैया की संपुट करके इक्कीस पुट में चाँदी भष्म होता है | जिसको रूपरस कहते है | पीपल वृक्ष के दूध का फाहा बडतोड और फोडा पर लगावे | अथवा छाल घिस कर फोडा पर लगावे | तो फोडा अच्चा हो जाता है | पीपल की छाल की राख मिट्टी की हण्डी में ठूंस कर भरे , जब आधी हण्डी भर जावे तब हर ताल अथवा संखिया उसमें रख कर फिर वही राख ठूंस-ठूंस कर भरे जब हण्डी उपर तक भर जाय तब उसको चूल्हे पर रख कर उसके नीचे चार पहर तक आँच दे तो हरताल अथवा संखिया की भष्म हो जाती है | वह भष्म खाँसी ,श्वास , तिजारी और ताप रोग वाले को हितकारी है | पीपल के काठ की प्याली में दूध पीने से चर्म रोग शाँत होता है और बल बढता है | पीपल के सूखे गोंद को आटा में मिलाकर हलुआ बनाकर खाने से वीर्य पुष्ट होता है | यह हलुआ स्त्री के प्रदर रोग को भी शाँत करता है | पीपल के गोंद और फल में पुत्रोत्पादनी शक्ती होती है | पीपल पक्के सूखे फल 5 तोले छोटी हर्रे 5 तोले और सौंप 5 तोले इनका चूर्ण बना ले और 15 तोला मिश्री पीस कर मिला ले | रात में सोते समय 1 तोला चूर्ण गर्म दूध या पानी के साथ फाँकने से प्रतः पखाना साफ होता है और जठराग्नि तीव्र होती है | पीपल छाल जलाकर पानी में बुझावे , उस पानी को छानकर पीने से कय (उल्टी) बन्द होती है | पीपल दूध पैर की बिवाई अच्छा करता है | पीपल के पंचाग (जड्,पत्ती , फल ,छाल , जटा) का अर्क रक्त को शुद्ध करता है | पीपल और नीम के कोमल पत्तों पीसकर लेप करने से बवासीर के मस्से सूख जाते हैं | पीपल की छाल और पत्तों का बफारा बवासीर पीडा को शाँत करता है | पीपल के फलों का चूर्ण 6 मासा दूध के साथ खाने से हृदय रोग शाँत होता है | पीपल की छाल का लेप आँख की बिलनी रोग को दूर करता है | पीपल और मेंहन्दी की पत्ती का लेप पैर के जलन को ठीक करता है | पीपल की कोपंल कान में डाले और उसका दूसरा सिरा हाँथ से पकडे रहे तो भूत बाधा दूर होती है | इससे सर्प विष भी दूर होता है | पीपल छाल और जौ पीस कर गर्म - गर्म बाँधने से फोडा पकता है |


ओंगा सफेद डंडा का
नाम - सं.- अपामार्ग ,हिं.- चिरचिटी , लटजीरा , ओंगा, आपांग , म.- अघाडा , गु.- अधेडी , अं.- रफचेफट्री , फा.- खारवासगीता | ओंगा को संस्कृत में अपामार्ग कहते हैं | इसी को बेरा लट्जीरा भी कहते हैं | और आँभी झारा भी कहते है | बरसात और शरदी के समय यह बहुत जगह मिलता है | बागों में ,खाइओं में अधिकता से मिलता है | इसका वृक्ष एक हाँथ उँचा होता है | ओंगा की राख में संखिया भष्म हो जाती है | सफेद डंडी के ओंगा की जड पीस कर हथेली पर लेप करने से मुख से खून गिरना बन्द हो जात है | तथा इसकी जड को उबाल कर स्त्री पीवे तो गर्भ रहता है | तथा इसकी जड को पीस कर अथवा पीस कर कुचों पर लगाने से दूध उतरता है | जिसको बिच्चू ने काटा हो उसके हांथ में ओंगा की जड दबावे तो विष शांत हो जाता है | एंव गर्भवती स्त्री के पांव पर इसकी जड को पीस कर लेप करे तो पूरे दिन वाली गर्भवती स्त्री को शीघ्र बालक उत्पन्न होता है | ओंगा की राख खाने से और बीज चिलम पर रख कर पीने से दमा रोग दूर हो जाता है | कान में दर्द हो अथवा आँख दुखती हो तो ओंगा के पत्तों का अर्क निचोडे तो कान का रोग जाता रहता है | आँख का भी दर्द जाता रहता है | नासूर हो तो ओंगा के पत्तों का अर्क नासूर को भरता है | ओंगा के पत्तों का अर्क पीने से बवासीर रोग दूर हो जाता है | तंत्र में लिखा है कि इसकी जड को घिस कर तिलक लगावे तो वशीकरण होता है |


मुलेठी

नाम - सं. यष्टिमधु , हिं- मुलहठी , बं- यष्ठी मधु , म. - ज्येष्टमधुः , गु. - जेठी मबनो मूल , फा. - वरवमहेकेमझु , अरबी- असललूसूसूसमुकस्सरव्येसूस | विवरण - मुलेठी का क्षुप होता है , इसके पत्ते गोल -गोल ,छोटे -छोटे होते है | इसकी छोटी और बारिक फल्ली होती है फूल लाल होता है | इसकी जड प्रयोग में ली जाती है | दूसरी बेल वाली मुलेठी होती है | गुण - मधुर , किंचित कडुवी , शीतल , स्निग्ध तथा भारी है | वर्ण को सुन्दर बनाने वाली और वीर्यजनक ,केशों को सुशोभित करने वाली है | बल कारक ,स्वर सुधरक ,पुष्टिदायक , मूत्रवर्धक , रक्तपित्त नाशक , व्रणदोष हारक एवं वात ,रक्त ,शोथ,वमन ,तृषा , ग्लानि , क्षय ,रक्तविकार ,वात पित्त ,विष तथा नेत्र रोग में अधिकतर लाभकर | इसका सत मीठा है और मुलेठी की अपेक्ष अधिक गुणकारी होता है | मुलेठी चूर्ण एक तोला बराबर मिश्री मिलाकर खावे और उपर से दूध मिलाकर पिवे बल और वीर्य को शुद्ध करता है | उपर


ओंगा लाल डंडी का

नाम - सं- रक्तापामार्ग,हिं - लाल चिरचिटा, बं - रांगा अपांग , म. - लाल अघाडा , गु. - झिपटा | लाल ओंगा में भी सफेद ओंगा के समान गुण हैं | ओंगा की दातुन नित्य करे और ब्रह्मचर्य से रहे तो बुद्धि बढती है , स्मरण शक्ती अधिक होती है और वॉक सिद्धि होती है | लाल ओंगा की राख कर उसको पानी में घोल कडाही में भर चूल्हे पर चढा देवे | जब पानी जल जाय तब उतार लेवे , जो खार कडाही में रह जाय उसको निकाल लेवे | यदि खाँसी सुखी हो तो पान में रख कर खाय और जो खाँसी तर हो तो 6 मासे भर शहद में चार रत्ती भर खार डाल कर चाटे और यदि श्वास (दमा) रोग हो तो चार रत्ती भर शहद में मिलाकर चाटे तो रूका हुआ कफ निकल जाता है और दमा रोग शांत हो जाता है | लाल ओंगा की बीजों की खीर 21 दिन खाने से भूख नहिं लगती ,तथा ओंगा की जड की राख दूध के साथ पीने से बाँझ स्त्री के संतान होती है | शनिवार को संध्या समय ओंगा के निकट जाय उसको जल से स्नान करा कर रोली, अक्षत,तिल चढाय धूप दीप नैवेद्य से पूजा कर कलावा (नारा) बाँधे और न्योता दे आवे | रविवार को सूर्योदय से पहले उसको उखाड लावे जिसको तिजारी और ताप रोग हो उसकी भुजा पर वह कलावा बाँधे तो रोग शाँत हो जाता है | उपर


अमलतास

नाम - सं - आरग्वध , हिं - अमलतास , बं - सोनालु , म.- बहवा गु - गरमालो , अरबी - ख्यारेशम्बर , अं. - पार्जिंग , काश्या | विवरण - इसका वृक्ष बडा होता है | पत्ते लाल चन्दन के पत्तों के समान होते  हैं | फूल पीले , आमले के सदृश होते हैं | फल्ली गोल और एक डेढ हाथ लम्बी  होती है | उसमे से काले रंग का गूदा निकलता है , उस गूदा का जुलाब होता है | व्यवहार - गूदा , पत्ते , फूल ,मूल इनकी मात्रा डेढ मासे से डेढ तोला तक है इसके पॆड सब देशों में , बागों में  और कालका शिमले की सडक पर बहुत हैं | लोग गुल्वलकडीया अमलतास  नाम से जानते हैं | गुण - अमलतास भारी , स्वादिष्ट , शीतल , मृदु , रेचन ,स्रंसन  तथा  कशैला है | उदावर्त , ज्वर , हृदय रोग , रक्तपित्त और शूल को नष्ट  करने वाला है | अमलतास की कली- स्रंसन , रूचिकर कुष्टनाशक, पित्तविनाशक्,कफघ्न,ज्वर में सदा पथ्य एवं कोठों का सोधन करने वाली है | अमलतास के पत्ते - कफ ,मेद शोषक , ज्वर में पथ्य और मल को ढीला (पतला) करते हैं | गजकर्णकुष्ठ , दद्रु , खुजली,आदि रोगों पर पत्ते कांजी में लगाते हैं | अमलतास के फूल - स्वादिष्ट ,शीतल , कडुवे ,ग्राही ,कशैले , वात वर्धक तथा कफ पित्त कारक है | अमल्तास की मज्जा - पाक में मधुर ,स्निग्ध ,जठराग्नि को प्रबल करने वाली ,रेचक और वात पित्त नाशक है | अमलतास की जड - दूध में औटाई हुई वातरक्त नाशक , दाह निवारक तथा मण्डल कुष्ठ को नष्ट करती है | गलगण्ड रोग में अमलतास की जड को चावलों की धोवन में पीस कर नास (नाक द्वारा प्रयोग ) देते हैं | कर्णिकार - ( एक दूसरे प्रकार का अमलतास ) सारक , कडुआ , चरपरा गरम , तथा कफ शूल , उदर रोग , कृमि प्रमेह ,व्रण और गुल्म नाशक है | उपर

 


बिल्व वृक्ष 

नाम - सं - बिल्व, हिं - बेल, बं - बेल , बिल्व, म.- बेल बेल फल , गु- बिलोविलू, अं - बंगालकिनश | बेल का वृक्ष बडा होता है | उसकी पत्ती तीन दल की होती है | , उसी को बेल पत्र कहते हैं | शिवजी की मूर्ती पर यही बेल पत्र चढाई जाती है | श्रावण मास में शैव शिवजी की पूजा करते समय वही बेल पत्र चढाते है | बेल वृक्ष कांटेदार होता है | इसका फल पका हुआ मीठा होता है | बेल की गूदी हि प्रायः काम में आती है | बेल की गूदी दस्तों रोक देती है  | बेल का मुरब्बा अथवा बेल का शिकंजबीन  खाने से दस्त बन्द हो जाते हैं | और दाह गरमी को शांत कर देती है | जो तेल ,खटाई, गुड, हिंग और भण्टा नही खाय , परहेज से रहे तो पके हुए बेल की गिरि आधा छटांक , सात काली मिर्च पैसा भर मिश्री , सफेद इलायची के दाने मासे भर घोट कर पीने से खूनी बवासिर शांत हो जाती है | बेल की पत्ती पीस कर पानी में चिनी मिलाकर शर्बत पीने से रातौंधी  अच्छी होती है | बहरेपन में बेल का गूदा बकरी  का दूध और गो मूत्र में तेल पका कर छान कर डालने से यह रोग दूर होता है | हराबेल उबाल कर कुल्ला करने से मुँह का आना दूर होता है | बेल पत्र का रस शरईर की दुर्गंधि को दूर करता है |म बेल गूदा आम की कोशला , जायफ्ल और अफिम के साथ पानी में पीस कर पेट पर लेप करने से पतला दस्त बन्द हो जाता है |   बेल के पेड की छाल  का काढा दिल धडकन को बन्द करता है | बेल की गूदी और धनियाँ का काढा गर्भिणी स्त्री के कय को दूर करता है | 


कचनार

 नाम- संस्कृत- कचनार ,कोविदार ,हिं - कचनार ,सफेद कचनार ,बं- कांचन, सफेद कांचन , म- कोरल कांचन , कारेल कांचन वृक्ष , गु- चम्पा काटी ,चम्पोकंचनार विवरण- कचनार वृक्ष कुछ बडा होता है | उसमे  फल्लियाँ बहुत लगती हैं | उन फल्लियों की तरकारी बनाकर खायी जाती है | कचनार की छाल से रूप रस सिद्ध किया जाता है | वह इस प्रकार कि इसकी छाल को लेकर कूटे और एक कसोर में रक्खे ,फिर उसको अच्छे सिक्का अथवा एक तोला चाँदी  रखकर एक्कीस पुट देवे  तो रूप रस बन जाता है अर्थात चाँदी भष्म हो जाती है | इसी प्रकार छाल को कूट कर फूल को पीस कर लुगदी कर छः मासा भर गंधक मिलाकर अच्छी मुहर अथवा सुन्दर सोने को उसमें रखकर इक्कीस पुट देवे तो सुवर्ण भष्म हो जाय | फूलों की लुगदी में पीसा हुआ  नमक मिला लेने से अच्छी भष्म होती है | अरूची और अतिसार में कचनार की कली  की तरकारी बहुत लाभकारी होती है | कचनार के छाल का लेप नहरूँआ रोग को दूर करता है | अथवा कचनार की छाल अथवा पत्ता छः माशा ,कत्था सफेद तीन माशा ,फिटकरी माशेभर पीस पानी में मिलाकर औटावे ,फिर उससे कुल्ली करे तो मुह के छाले ,शीत वादी से दाँतों का दर्द दूर होता है | कचनार गंडमाला की खास दवा है | इसी से कचनार गुग्गुल बनता है | उपर


मोरछल्ली

नाम-  सं - मयूरशिखा ,हिं - मोरशिखा (लाल मुर्गा ) ,मोर छाल , बं - मयूर शिखा ,म - मगुर शिख , फा - असनाने ,असलाने | विवरण - मोरछली का वृक्ष बडा नही होता है | मोरछली फल  खाया जाता है | मिश्री और मोरछली के बीज घिस कर नासूर पर लगावे अथवा जो फोडा भरिया फुटिया वाल हो उस पर लगावे तो आराम होवे | यदी मस्तक में पीडा होती हो तो मोरचली का इत्र सूँघे फल सूँघे अथवा नरम पत्ते गरम कर बाँधे किं वा मोरछली के बीजों की और लौंग घिस कर आँच पर गरम कर तीन दिन लगावे तो मस्तक की पीडा और टसकनी शाँत हो जाती है | इसका दूसरा नाम मोलश्री भी है |  उपर

 


शहतूत

नाम - सं - तूत ,हिं - शहतूत , तूत , बं - पलाशा पिल , म- तूतें ,गु - शेतूत ,तूत अँ-मलबेरिझ ,फा- शाठतूत ,तूत, तूर्श्,तूतशीरी  | शहतूत  का वृक्ष बडा होता है | शहतूत के फल दो रंग के होते है | बैंजने काले अथवा हरे सफेदी लिये | इसके खाने से वातविकार गरमी  शाँत हो जाती है | शहतूत फलों का अर्क पीने से भी गरमी शाँत होती है | शहतूत के नरम पत्ते अथवा कोंपल किंवा फल की लुगदी में छः माशे भर मैनशील पीस कर भरे और संपुट करके कंडे की आँच में फूँके , जब भष्म हो जाय तब उसको आधे चावल भर गुड में मिला कर देने से तिजारी और चौथिया ज्वर शाँत हो जाता है , तथा शहतूत के नरम पत्ते  घोट कर उनमें आधी गेहूँ की भूसी मिलाय उबाले और फोडा की नरम गाँठ कर गरम -गरम बाँधे तो फोडा की गाँठ अच्छी हो जाय | शहतूत खाने से पित्त और रक्त के रोग अच्छे हो जाते हैं | शह्तूत के शर्बत से रक्तपित्त ,अम्लपित्त ,कब्ज और गरमी की शाँती होती है | शह्तूत का रस चीनी के साथ  पीने से पेशाब का पीलापन दूर होता है |  उपर


सिंघाडा

 नाम - सं - श्रृंगाटक ,हिं -सिंघाडा , बं - सिंघाड ,पाणीफल ,म- शिंघाडा , गु - शिगोडा ,फ- सुरंजान , अं - वाटर कैट्कप विवरण - सिंघाडे की बेल बडे - बडे सरोवरों में होती है | बेल में तीन धार वाले फल लगते हैं | फलों में तीन काँटों के समान अन्नी होती है | फल से एक मिंगी निकलती है उसको लोग खाते हैं | य छिलके सहित पानी में उबाल कर छिलके रहित कर खाते हैं | और मिंगी के शाक आदि भी बनाये जाते हैं | उस मिंगी को सुखाकर उसका चूर्ण बना लेते हैं | उस चूर्ण का हल्वा इत्यादि कई वस्तुयें बनाई जाती है | भारत देश में या कृष्णभावनाभवित संस्थाओं में एकादशी के दिन फलाहार के रूप में लिया जाता है | गुण - शिंघाडा शीतल , स्वादिष्ट , भारी , कशैला , मलरोधक शुक्रजनक , वातकारक , कफनाशक ,वीर्यवर्धक, रक्तपित्त-दाह निवारक , रूचिकारक , हलका खर,वृष्यतम , त्रिदोष नाशक , ताप निवारक श्रम,भ्रम,सूजन एवं संताप तृषा को नष्ट करने वाला है | गर्भावस्था में रक्तस्राव हो तो सिंघाडा के हलवा में बंशलोचन खाये  और उपर से दूध पिये | पेट में जलन हो तो कच्चा सिंघाडा खाना चाहिये | सिंघाडे का आटा और बबूल का गोन्द घी में भून कर सबको बराबर मिश्री मिलाकर आधि छंटाक मात्रा  में खा कर उपर से दूध पीवे तो वीर्य बढता है | बहुमूत्र में सिंघाडे का आटा 1तोला , मिश्री 1तोला, घी 1तोला सबको मिलाकर प्रातः खाना चाहिये |    उपर

 


कलिहार

सं - कलकारी ,हिं - कलिहारी, कलियारा , कलारी,बं - विषलगला , ईश लंगला ,म- खडचानाग ,चगमोड्या , कलालाबी ,गु - दुघिमो , बलनाग ,कलगारी, अं - वुल्घसबेन  कलिहारी के पत्तों के रस में एक सौ एक बार अभ्रक को तपाकर बुझावे , इसी प्रकार त्रिफला गोमूत्र में काँजी और बूटीयों में पुट देकर अभ्रक भष्म किया जाता है कलिहारी के पत्तों का रस गरम करके रतवाय रोग में लगाने से रोग दूर हो जाता है | कलिहारी के पत्तों के रस में अन्य भी अनेक गुण हैं | कलिहारी के जड को धागे में बांध कर हाँथ-पैर में बाँधने से गर्भप्रसव जल्दी होता है | कलिहारी की जड पीस कर हाँथ और पैरों में लेप करने से अपरा (खेडी) जल्दी गिर पडती है | योनी पर कलिहारी की जड मधु और सेंधा नमक के लेप से रूका हुआ रजोधर्म जारी होता है | कलिहारी की जड , सिरसा के बीज ,कूट , मदार का दूध,पीपर सेंधानमक ,को गोमूत्र में पीस कर लेप करने से बवासीर के मस्से सूख जाते हैं |  कलिहारी की जड,कालाधतूरा की जड और कुचिला के लेप से भगन्दर रोग अच्छा हो जाता है | कलिहारी की जड पानी में पीस कर नस्य देने से  सर्प विष उतरता है | कलिहारी की जड ,धतूरे का पंचाग ,अफिम,असगंध,तमाखू  , कायफल और सोंठ सबको बराबर लेकर पानी में पीस कर सबसे चौगुना तिली का तेल और तेल से चौगुना पानी डाल कर पकावे , जब पानी जल जाय तब तेल छान कर लगावे तो सभी प्रकार के वात के दर्द नष्ट हो जाते है | सफेद फूल के कलिहारी के जड से दूना शंख दोनों का चूर्ण कर जंभीरी नीबू के रस में तीन बार भिगो कर गजपुट में फूंक दे इसकी भष्म शूल को तत्काल अच्छा करती है | उपर


सुपारी

नाम - सं - पूगीफल , हिं - सुपारी बं - शुपारी ,म- सुपारी ,गु,-शोपारी ,फा - पापिल ,अरबी - फोफिल ,अं - बिट्लनट | विवरण - सुपारी के पेड ताड और नारियल के समान लम्बे-लम्बे बागों आदि में होते हैं | इसका वृक्ष खम्बा की तरह सीधा होता है | इसके पत्ते नारियल के पत्तों जैसे लम्बे होते हैं | इसके शिर के उपर बेर के जैसे फल कुछ लम्बाई लिए गोल होते हैं | इसी को छिलने से भीतर से सुपारी निकलती है | सुपारी की कई जातियाँ हैं | जिहाजी , श्रीवर्धनी ,मानगचन्दी इत्यादि | गुण - सधारण सुपारी मोहकारी , स्वादिष्ट ,रूचिजनक, कसैली रूक्ष ,सारक ,मधुर ,भारी , पथ्य ,दिपन ,किंचित चरपरी मुख का विरसता नाशक ,तथा वमन ,त्रिदोष ,मल ,वात ,कफ ,पित्त और दुर्गंधि को दूर करता है | कच्ची सुपारी - कसैली ,कण्ठरोधक ,अभिष्यन्दी ,सारक, भारी ,दृष्टीनाशक ,मन्दग्नि कारक ,रक्तविकार ,मुख मल ,पित्त कफ आमाउर आध्मान रोग को नष्ट करने वाली है | सूखी सुपारी रूचीकर ,पाचक ,रेचक, स्निग्ध ,बादी , कंठरोग ,एवं त्रिदोष नाशक है | बिना पान के अकेले सुपारी खाने से सुजन और पाण्डुरोग उत्पन्न होते हैं | पकाई हुई कच्ची सुपारी - स्निग्ध वातकारक ,और त्रिदोष नाशक है | कोमल सुपारी त्रिदोष निवारण करने वाली है | आंध्रप्रदेश की सुपारी - पचने में मधुर ,अम्ल कशैली तथा कफ वात नाशक और मुख को जडता दायक है | चम्पापुर की सुपारी -पाचक अग्नि प्रदीपक ,रसाढ्य और कफ नाशक है | रोंठी सुपारी - रूचिकर अग्निवर्धक ,चरपरी,कशैली,गरम, मलरोधक,एवं पित्तजनक है | वल्गुली सुपारी -रूचीदायक ,अग्निप्रदीपक ,पाचक मल स्तम्भक,मेद एवं त्रिदोष नाशक है | चन्दापुरी सुपारी - रस में मधुर ,चरपरी कशैली ,रूचिकरी ,स्वादु अग्निप्रदीपक ,पाचक और कफ नाशक है | गुहागरी सुपारी - मधुर ,कसैली , हल्की ,चरपरी,द्रावक ,पाचक , विशद और अध्मान वात -मलस्तम्भ विनाशक है | नैलवती सुपारी- कण्ठरोधक , पाचक , मधुर ,रूचिकारक ,सारक ,कांतीकारी ,हल्की और रसाम्ल है | सुपारी वृक्ष का गोंद -मोहजनक ,शीतल ,भारी ,पाक में उष्ण , पित्तकारक ,चरपरा खट्टा और वात निवारक है | वमन पर - सुपारी की राख ,रेशम की राख और नीम की राख बिजौर निबू के चूर्ण के साथ पानी में मिलाकर सेवन करना चाहिए | मूत्राघात पर - सुपारी के छिलके राख पानी से सान कर बस्ती पर लेप करना चाहिए | सुपारी के लेप से आधा शिर दर्द दूर होता है | विसर्प और चकता - चिकनी सुपारी पानी में पीस कर लेप करना चाहिये | खुजली - सुपारी की रख और तिल के तेल के लगाने से दूर होता है | आतशक - की  फुंसियों  में पहले मक्खन चुपडे और बाद सुपारी की राख और कत्था मिलाकर भुरभुरा दें इससे घाव जल्दी दूर होता है | उपर


मेंहन्दी

नाम - नखरंजक ,हिं - मेंहन्दी , बं- मेदी, म- मेंहन्दी , गु- मेटी , अरबी- हेना , फा- हिना | मेहन्दी का वृक्ष मझोला ओता है | मेहन्दी की पत्ती पीस लुगदी बनाय हथेली और तलवों पर घंटे भर रखे रहने से हथेली और पाँव के तल्वे लाल हो जाते हैं | मेहन्दी ठण्डक पहुंचाती है | मेहन्दी की पत्ती बाँट पोटली बनाय उसमें काठा सुपारी ,फिटकरी ,कपूर ,लोध कुल मिलाय पोट्ली को पानी में भिगो कर आँख में बरबर लगावे अथवा पोट्ली का पानी आँख में टपकावे तो आँख की पीडा और लाली दूर होती है | मेहन्दी की पत्ती पानी में पीस तालू और पाँवों के तल्वों पर लगाने से नकसीर बन्द हो जाती है | तथा पुरानी मेहन्दी दो तोला सफेद इलायचि के दाने छः रत्ती ,मिश्री एक तोला घोट कर पीने से सात दिन में प्रमेह रोग शांत होता  है | मेहन्दी की पत्ती की लुगदी में बँग भष्म होता है |  उपर



सत्यानाशी

नाम - सं - कटुपर्णी ,स्वर्ण क्षिरी , क्षिरीणी | हिं - सत्यानाशी ,कटेरी (चौक ) भँड भाँड, पिसोला , बं - स्वर्णक्षिरी ,शोणा सिरूई(चोक) ,म- कांटेघोत्रा ,फिरंगी घोत्रा ,गु-दारूणी , अं-गेंम्बोझ, घिसला | सत्यानाशी का वृक्ष छोटा और सुन्दर होता है | नेत्र में पीडा हो तो सत्यानाशी का दूध अंजन की भाँति लगावे और सत्यानाशी की जड घोट कर पीवे  तथा सत्यानाशी का रस निकाल कर एक तोला शोरा तवा पर रख कर उस पर रस डाले , दोनों को चूल्हे पर चढा कर आँच दे ,जब शोरा पक जाय  और रस नही रहे तब उतार ले | फिर वह शोरा एक माशा, मिश्री एक तोला पानी में डाल कर पीये तो सुजाक रोग अच्छा हो जाता है | सात दिन पीये ,गुड तेल खटाई लाल मिर्च नहीं खाये ,मूंग की दाल ,घी,रोटी खाये ,सात दिन में रोग अच्छा हो जाता है | जो आतशक से चकते पड गये हों  तो ,सत्यानाशी के पत्तों का रस और दूध मले और जड को घोट कर पीये , तो चकते अच्छे हो जाते हैं | परंतु परहेज से रहे | उपर | आगे-

 


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