श्रीउपदेशामृतम्

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" श्रील रूप गोस्वामी समस्त गोस्वामियों के नायक थे | उन्होंने हमारे भक्तिकार्यकलापों का निर्देश करने के लिए हमे उपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम उसका पाल कर सकें | जिस प्रकार श्रीचैतन्य महाप्रभु अपने पिछे शिक्षाष्टक नामक आठ श्लोक छोड़ गये थे उसी प्रकार श्री रूप गोस्वामी भी हमें श्रीउपदेशामृत प्रदान किया जिससे हम शुद्ध भक्त बन सकें |
   समस्त आध्यात्मिक कार्यों में मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने मन तथा इंद्रियों को वश में करना है | मन तथा इन्द्रियों को वश में किये बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में प्रगति नहीं कर सकता | प्रत्येक व्यक्ति इस भौतिक जगत में रजो तथा तमो गुणों में निमग्न है | उसे श्री रूपगोस्वामी के उपदेशों पर चलते हुए अपने आपको शुद्ध सत्व गुण के पद तक उठना चाहिये | तभी आगे की उन्नति सम्बधि प्रत्येक आध्यात्मिक रहस्य प्रकट हो जायेगा | "
(श्रील प्रभुपाद कृत उपदेशामृत के आमुख से)

श्लोक 1. वाचो वेगं मनसः वेगं क्रोधवेगं जिह्वावेगमुदरोपस्थवेगम् |  एतान् वेगान् यो विषहेत धीरः सर्वामपीमां पृथ्वीं स शिष्यात् ||1||

वाचः=वाणी के ;वेगम्=वेग को;मनसः=मन के ; क्रोध=क्रोध के;वेगम् = वेग को; जिह्वा=जीभ के ; उदर-उपस्थ=पेट तथा जनेनन्द्रियों के ;वेगम्= वेग को ;एतान्= इन; वेगान्= वेगों को ; यः=जो;विषहेत्= सहन कर सके ; धीरः=बुद्धिमान; सर्वाम्= सम्पूर्ण; अपि=निश्चय ही; इमाम्=इस;पृथिवीम्=पृथिवी को; सः=वह व्यक्ति;शिष्यात्=शिष्य बना सकता है |

अनुवाद: वह बुद्धिमान् व्यक्ति जो वाणी,मन,क्रोध,रसना,उदर और जननेंद्रियों के आवेगों को सहन कर सके , सम्पूर्ण पृथिवी को शासन कर सकता है , या शिष्य बना सकता है |

तात्पर्य : श्रीमद्भागवत ( 6-1. 9-10) में परिक्षित महाराज ने शुकदेव गोस्वामी के समक्ष अनेक बुद्धीमत्तापूर्ण प्रश्न किये | उन प्रश्नों में से एक यह था : " यदि मनुष्य अपने इन्द्रियों का निग्रह नहीं कर सकते तो पापों का प्रायश्चित क्यों करते हैं ? " उदाहरण के लिए एक चोर भलिभाँति जानता है कि चोरी के लिए उसे बन्दी बनाया जायेगा ,और यहाँ तक कि चोर को आरक्षि द्वारा बन्दी बनाया हुआ देखता है , तब भी वह चोरी करता है | सुनने और देखने से अनुभव प्राप्त किया जा सकता है | जो व्यक्ति कम बुद्धिमान् होता है ,वह सुनने से अनुभव प्राप्त करता है | जब एक बुद्धिमान् व्यक्ति विधि-ग्रंथों और शास्त्रों से सुनता है कि चोरी करना ठीक नहीं और सुनता है कि जब चोर को बन्दी बना लिया जाता है तो उसे दण्डीत किया जाता है  ,तब वह चोरी से विरत हो जाता है | किंतु एक कम बुद्धिमान् मनुष्य पहले बन्दी और दण्डित होता है और तब चोरी करना छोड़ देता है | किंतु एक दुष्ट और नीच प्रकृति के मनुष्य को चाहे सुनने और देखने - दोनों का अनुभव हो ,चाहे उसे दण्डित भी किया जाय ,वह चोरी करता है | ऐसा मनुष्य चाहे प्रायश्चित कर ले ,और शास्ता द्वारा दण्डित भी हो जाय ,जैसे ही कारागार से मुक्त होता है , पुनः चोरी आरम्भ करता है | यदि कारागार में दण्ड को प्रायश्चित समझा जाय तो ऐसे प्रायश्चित  से  लाभ क्या है ? इस प्रकार परिक्षित महाराज  ने पूछा  : दृष्टाश्रुताभ्यां यत्पापं जानन्नप्यात्मनोsहितम् | करोति भूयो विवशः प्रायश्चित्तमथो कथम् || क्वचिन्निवर्तते भद्रात्क्वचिच्चरति तत्पुनः  | प्रायश्चित्तमतोsपार्थं मन्ये कुंजरशौचवत् ||    ऐसे प्रायश्चित की तुलना उन्होंने गज स्नान से की है | हाथी नदी में बहुत अच्छी तरह से स्नान करता है , किंतु वह ज्यों हि तट पर आता है , अपने सारे शरीर पर धूल मिट्टी डाल लेता है | तब उसके स्नान का क्या मूल्य रहा ? इसी प्रकार अनेक आध्यात्मिक साधक हरे कृष्ण महामंत्र का लय बद्ध गान करते हैं ,और साथ ही अनेक निषिद्ध कर्मों का आचरण भी करते हैं | वे सोचते हैं कि उनका हरिनाम जप या संकिर्तन उनके अपराधों को धो डालेगा | भगवान् का पवित्र नाम का संकिर्तन करते हुए दस नाम अपराधों में से एक में यह कहा गया है कि : "  नाम्नो हि बलाद् यस्य हि पापबुद्धिः ' मंहामंत्र के संकिर्तन के बल पर पाप करना ' इसी प्रकार कुछ इसाई यह सोच कर कि पादरी के सामने अपने पापों को स्वीकार करना  उन्हें उनके साप्ताहिक पापों के फलों  से छुटकारा दिला देगा ,अपने पापों को स्वीकार करने के लिए चर्च जाते हैं | शनिवार के पश्चात ज्यो ही रविवार आता है | वे अपने पाप कर्म पुनः आरम्भ कर देते हैं | और आशा करते हैं कि आगामी शनिवार को उन्हें क्षमा कर दिया जायेगा | इस प्रकार के प्रायश्चित की ,अपने समय के सर्वाधिक  बुद्धिमान् राजा परीक्षित् महाराज  ने निन्दा की है | उतने ही बुद्धिमान्  और  परिक्षित् महाराज के अनुरूप  आध्यात्मिक गुरु शुकदेव गोस्वामी  ने राजा को उत्तर दिया और प्रायशित्त  सम्बंधि  उनके  कथन की  सत्यता  का समर्थन  किया | पाप कर्म पुण्य कर्म से नहीं धुल सकता | अतः वास्तविक  प्रायश्चित्त  हमारी सुप्त  कृष्ण भावना को जगाना  है | वास्तविक प्रायश्चित के लिए सच्चे ज्ञान तक पहुँचना होता है , और इसका एक सुनिश्चित प्रक्रिया है | जब कोई नियमित स्वस्थ चर्या अपनाता है ,तो वह रोगी नहीं होता | अपने मूल ज्ञान को पुनर्जिवित करने के लिए मनुष्य को कुछ सिद्धांतों के अनुसार प्रशिक्षित होना होता है | ऐसे सुव्यवस्थित जीवन को 'तपस्या' कहा जाता है | तपश्चरण ब्रह्मचर्य , मनोनिग्रह , इन्द्रियनिग्रह , स्वसम्पत्ति दान , दृढ़तापूर्वक सत्य पालन , शुचिता और योगासनों द्वारा मनुष्य शनैः-शनैः सच्चे ज्ञान की कोटी अथवा कृष्ण -भावना तक उन्नत हो सकता है | किंतु यदि कोई मनुष्य सौभाग्य से  किसी सच्चे  भक्त की संगति  प्राप्त कर लेता है तो वह दैवी योग द्वारा ,केवल कृष्ण भावना के नियामक सिद्धांतों -अवैध काम त्याग,माँस भक्षण त्याग, मद्य सेवन त्याग ,एवं द्यूतक्रीड़ा त्याग द्वारा ,और प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरू के निर्देशन  में परम प्रभु के सेवा में संलग्न रह कर मनोनिग्रह के लिए पूर्वोक्त सभी साधनों  का सरलता से अतिक्रमण कर सकता है | यहाँ श्रील रूप गोस्वामी द्वारा यही  सरल मार्ग बताया जा रहा है | सर्वप्रथम , मनुष्य को अपनी बोलने की शक्ति पर नियत्रंण करना चाहिए | हममे से प्रत्येक में बोलने की शक्ति है , ज्यों ही हमें अवसर मिलता है , हम बोलना आरम्भ कर देते हैं | यदि हम कृष्ण - भावना की बात नहीं करते तो सब प्रकार की निरर्थक बातें करते हैं | खेत में टर्राता हुआ मेंढक बोलता ही तो है | इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य जिसके पास वाणी है , बोलना चाहता है | , चाहे वह जो कुछ कहना चाहता है , निरर्थक ही क्यों न हो | मेंढक की टर्राहट केवल सर्प को आमंत्रित करती है ' " कृपया यहाँ आईये और मुझे खाईये |'' तब भी मेढक टर्राता रहता है |, यद्यपि यह मृत्यु का आवाहन है | भौतिकतावादी मनुष्यों और निराकार वादी मायावादी दार्शनिकों की बातों की तुलना मेंढक की टरटराहट से की जा सकती है | वे सदा निरर्थक बोलते रहते हैं और इस प्रकार मृत्यु ग्रस्त होने के लिए उसको आमंत्रित करते रहते हैं | किन्तु वाणी का संयम स्वयं थोपी हुई चुप्पी ( मौन रहने की बाह्य क्रिया ) नहीं है , जैसा कि मायवादी दार्शनिक सोचते हैं | मौन कुछ समय के लिए सहायक हो सकता है , किन्तु अन्ततोगत्वा व्यर्थ ही सिद्ध होता है | संयमित वाणी का श्रीलरूपगोस्वामी द्वारा अभिव्यक्त अर्थ कृष्ण कथा की कल्याणमय क्रिया का बोध कराता है | वाणी परम प्रभु श्रीकृष्ण की महिमा का ख्यापन करने में संलग्न हो | वाणी इस प्रकार प्रभु के नाम ,रूप गुण और लीलाओं की महिमा का गान कर सकती है | कृष्ण कथा का गायक सदैव मृत्यु के पास से मुक्त रहता है | वाणी के आवेग को नियंत्रित करने का यही अभिप्राय है | जब मनुष्य कृष्ण के चरणकमलों में मन लगा देता है तो उसका मनोवेग नियंत्रित हो जाता है | चैतन्यचरितामृत ( मध्य 22 31 ) में कहा गया है - कृष्ण -सूर्य सम; माया हय अन्धकार | जहाँ कृष्ण तहाँ नाही मायार अधिकार || ' कृष्ण सूर्य के समान और माया अन्धेरे के समान है | यदि सूर्य उपस्थित है तो अँधेरे का प्रश्न ही नहीं उठता | इसी प्रकार यदि मन में कृष्ण हैं , तो माया के प्रभाव से मन के उद्वेलित होने की सम्भवना नहीं है | भौतिक विचारों को नकारने की योग प्रक्रिया यहाँ सफल नहीं होगी | मन में एक सून्य उत्पन्न करने का प्रयत्न एक कृत्रिम बात है | शून्य वहाँ रह ही नहीं सकता | किंतु यदि कोई सदैव कृष्ण का चिंतन करता है और सोचता रहता है कि सर्वोत्तम रूप से कृष्ण की सेवा कैसे कर सकता है | तो उस व्यक्ति का मन सहज रूप से ही नियत्रित हो जाता है | इसी प्रकार क्रोध भी नियंत्रित हो सकता है | हम क्रोध को पूर्णतया नहीं रोक सकते , किंतु यदि हम केवल उन्हीं लोगों पर क्रोध करें जो प्रभु के या उअंके भक्तों के निन्दक हैं तो हम कृष्ण भावना के अन्तर्गत अपना क्रोध का नियंत्रण कर लेते हैं | श्री चैतन्यमहाप्रभु दो दुष्टभाईयों - जगाई-माधाई पर क्रुद्ध हो गये थे , जिन्होन्ने नित्यानन्द प्रभु की निन्दा और ताड़ना की थी | अपने शिक्षाष्टक में महाप्रभु ने निखा है - ' तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना , '' मनुष्य को घास से भी अधिक नम्र और वृक्ष के समान सहिष्णु होना चाहिए '' तब कोई प्रश्न कर सकता है कि फिर महाप्रभु ने क्रोध प्रदर्शन क्यों किया | बात यह है कि मनुष्य को सब प्रकार से अपना अपमान सहन करने के लिए सन्नद्द रहना चाहिए , किंतु जब कृष्ण या उनके भक्तों की निन्दा की जाती है तो एक सच्चा भक्त क्रुद्ध हो जाता है और अपराधी के विरूद्ध अग्नि का सा कार्य करता है | क्रोध को रोका नहीं  जा सकता है | किंतु उसका सही रूप में उपयोग किया जा सकता है | हनुमानजी क्रोध में लंका जला डाली थी , किंतु वे भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के सबसे बड़े सेवक के रूप में सुपूजित हैं | इसका तात्पर्य है कि उन्होने अपने क्रोध का प्रयोग सही ढंग से किया | अर्जुन इस प्रकार के दूसरे उदाहरण हैं | वे युद्ध के लिए इच्छुक नहीं थे , किंतु कृष्ण ने उनके क्रोद्ध को जगाया , '' तुम्हें अवश्य लड़ना चाहिये | '' क्रोद्ध के बिना युद्ध सम्भव नहीं है | किन्तु क्रोध जब भगवत्सेवा के लिए प्रयुक्त होता है तो वह नियंत्रित हो जाता है | रसना के आवेगों के सम्बध में हम सब अनुभव करते हैं | कि रसना सुस्वादु भोज्य पदार्थों का सेवन चाहती है | साधारणतया हमें रसना को उसकी रूचि के अनुसार खाने की छूट नहीं देनी चाहिए ,अपितु प्रसाद देकर उसे नियंत्रित करना चाहिए | भक्त की धारणा है कि वह तभी खायेगा , जब श्रीकृष्ण जब उसे प्रसाद देंगे | रसना को नियंत्रित करने का यही उपाय है | मनुष्य को निश्चित समय पर प्रसाद लेना चहिए और केवल रसना और उदर की आवश्यकता को पूर्ण करने केलिए होटलों और मिठाई की दुकानों पर नहीं खाना चाहिए | यदि हम केवल प्रसाद ग्रहण के सिद्धांत पर दृढ रहें तो उदर और रसना के आवेगों को नियंत्रित किया जा सकाता है | इसी प्रकार जननेन्द्रियों के वेग या कामवासना के वेग भी उन्हें अनावश्यक रूप से प्रयोग में न लाकर वश में किये जा सकते हैं | जननेन्द्रियों का उपयोग कृष्णभावना भावित संतान उत्पन्न करने के लिए ही किया जाना चाहिये | अन्यथा उनका प्रयोग न करें | कृष्ण भावनामृत आन्दोलन में विवाह को इसलिए प्रोत्साहन नहीं दिया जाता कि कामेंद्रियो की तृप्ती हो ,अपितु कृष्ण भावना भावित संतान उत्पन्न करने के लिए दिया जाता है | ज्योंही बच्चे थोड़े बड़े हो जाते हैं , उन्हें ड्ल्लास टॆक्सस जैसे गुरूकुल में भेज दिया जाता है | जहाँ उन्हें पूर्णतया कृष्ण भावनाभावित भकत बनने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है | ऐसे अनेक कृष्ण भावना भावित बच्चों की आवश्यकता है | और इस प्रकार की संतान उत्पन्न करने में सक्षम होता है | ,उसे जननेंद्रियो का उपभोग करने दिया जाता है | जब कोई कृष्णभावना भावित सयंम की विधियों का पूरी तरह अभ्यास कर लेता है तो उसे प्रमाणिक गुरू बनने के लिए योग्य समझा जाता है | श्रील भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने उपदेशामृत की अनुवृत्ति की व्याख्या में लिक्खा है कि हमारी देहात्म बुद्धी से तीन प्रकार वेग उत्पन्न होते हैं - बोलने का वेग मन का वेग तथा शरीर का वेग | जब जीव इन तीनों वेगों का का शिकार बनता है तो उसका जीवन अमंगलमय हो जाता है | जो व्यक्ति इन वेगों को या आवश्यकताओं को दमन करने का अभ्यास करता है | वह तपस्वी कहलाता है | ऐसी तपस्या से वह भगवान् की बहिरंगा शक्ति या भौतिक शक्ति के उत्पीड़न को वश में कर लेता है | जब हम वाणी के वेग की बात चलाते हैं तो हमारा अभिप्राय व्यर्थ की बातों से होता है -यथा निर्विशेष मायावादी दर्शनिकों की बातें या सकाम कर्म (कर्मकाण्ड ) में लगे हुए व्यक्तियों की बातें ,उन भौतिकतावादी व्यक्तियों की बातें , जो बिना रोकटोक के जीवन का उपभोग करना चाह्ते हैं | ऐसे समस्त बातें या साहित्य वाणी के वेग के व्यवहारिक प्रदर्शन हैं | अनेक लोग व्यर्थ की बातें करते हैं और व्यर्थ की पुस्तकें लिखते हैं | ये सब वाणी के वेग के परिणाम होते हैं | इस प्रवृत्ति को निष्क्रिय करने के लिए हमें अपनी बातों को कृष्णकथा की ओर मोड़ना होगा | श्रीमद्नभागवत ( 1.5.10-11) में इसकी व्याख्या की गई है -----  यद्वश्चित्रपदं  हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रगृणीत कर्हिचित् | तद्वायसं तीर्थमुशन्ति मानसा न यत्र हंसा निरमन्त्युशिक्क्षयाः || '' जो शब्द उस भगवान् का यशोगान नहीं करते ,जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वायुमण्डल को अकेले पवित्र  करने वाले हैं , वे साधु पुरूषों द्वारा कौओं के तीर्थ जैसे माने जाते हैं | चूँकि सर्वपूर्ण व्यक्ति दिव्य धाम के निवासी होते हैं , अतएव  उन्हें  वहाँ आनन्द प्राप्त नही  होता  | "अतएव उन्हें वहाँ कोई आनन्द प्राप्त नहीं होता  |'' तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो,यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यपि | नामान्यनन्तस्य यशोsङ्कितानि यत् श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्ति साधवः || '' इसके विपरित वह साहित्य जो अनन्त परमेश्वर के नाम , यश ,रूप ,लीलाओं आदि की दिव्य महिमा के वर्णन से ओतप्रोत होता है वह एक दूसरी ही सृष्टी होती है , जो ऐसे दिव्य शब्दों से पूर्ण होता है | जिनसे इस जगत की भ्रान्त सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति आ सकती है | ऐसा दिव्य साहित्य भले ही अपूर्ण रचा गया हो , वह उन शुद्ध व्यक्तियों द्वारा सुना ,गाया तथा स्वीकार किया जाता है जो पूर्णतया निष्कपट हैं | ''

सारांश यह है कि जब हम केवल परमेश्वर की भक्तिपूर्ण सेवा की बात करते हैं | तभी हम व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण बातों से बच सकते हैं | हमें सदैव प्रयत्न करना चाहिये कि अपनी वॉक शक्ति का प्रयोग कृष्ण भावना को उपलब्ध करने के उद्देश्य से करें | जहाँ तक चंचल मन की क्षुब्धावस्था का प्रश्न है , वह दो भागों में बाँटी जा सकती है | पहली अविरोध प्रिति या निर्बाध ममता है और दूसरी विरोध युक्त क्रोध है जो निराशा या विफलता जन्य होता है | मायावादियों के सिद्धांतों में आग्रह ,कर्मवादियों के सकामकर्मफल में विश्वास ,और भौतिक कामनाओं पर आधारित योजनाओं में आस्था रखना ' अविरोध प्रिति कहलाती है | ज्ञानी कर्मी और भौतिक कामनाओं को लेकर कर्म करने वाले लोग प्रायः सकाम जीवों का ध्यान आकर्षित करते हैं , किंतु जब भौतिकवादी लोग अपनी योजनाओं को पूरा नहीं कर पाते और उनके प्रयत्न विफल हो जाते हैं , तो वे क्रुद्ध हो जाते हैं |भौतिक कामनाओं की विफलता क्रोध उत्पन्न करती है |

इसी प्रकार शरीर की आवश्यकताएँ तीन भागों में विभाजित की जा सकती हैं रसना (जीभ) की आवश्यकतायें , उदर की आवश्यकताएँ,और जनन इंद्रिय की आवश्यकताएँ | हम देख सखते हैं कि जहाँ तक शरीर का सम्बध है ,ये तीनों इन्दीयाँ एक सीधी पँक्ति में स्थित हैं ,और शारीरिक भूख रसना (जीह्वा से शुरू होती है | यदि कोई मनुष्य रसना की आवश्यकता को केवल प्रसाद ग्रहण द्वारा नियंत्रित कर ले तो पेट और जननेंद्रिय के आवेग स्वतः नियंत्रित हो जायेंगे | इस सम्बध में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं :

शरीर अविद्या जाल , जड़ेंद्रिय ताहे काल |
जीवे फेले विषय  सागरे ,
तार मध्ये जिह्वा अति,लोभमय सुदुर्मति |
ता'के जेता कठिन संसारे ,
कृष्ण बड़ दयामय ,करिवारे जिह्वाजय |
स्व प्रसाद अन्न दिल भाई ,
सेई अन्नामृत खाओ, राधाकृष्णेर गुण गाओ |
प्रेमे डाक चैतन्य निताई ||

" हे प्रभो ! यह भौतिक शरीर अज्ञान का पुँज है और इंद्रियाँ मृत्यु की ओर ले जाने वाले पथों का जाल हैं | किसी प्रकार हम इंद्रियों के भौतिक सुखोपभोग के सागर में गिर गये हैं सभी इंद्रियों में रसना ही सबसे अधिक खाऊ और दुर्निग्राह्य है | इस संसार में रसना को जितना बड़ा कठिन है , किंतु हे कृष्ण ! आप हम पर बड़े कृपालु हैं | आपने हमें रसना को जितने के लिए सहायतार्थ यह उत्तम प्रसाद भेजा है | अतः हम अपनी पूर्ण संतुष्टी के लिए यह प्रसाद ग्रहण करें | और राधाकृष्ण के गुण गाएँ और प्रेम से श्रीचैतन्य और श्रीनित्यानन्द को आर्त भाव से पुकारें | "

रस छः प्रकार के होते हैं और यदि कोई मनुष्य इनमें से किसी एक के द्वारा प्रलुब्ध हो जाता है तो वह रसना के आवेग के वशीभूत हो जाता है | कुछ लोग माँस ,मछली,केकड़े ,अण्डे, शुक्र और रक्त से निर्मित अन्य पदार्थ मृतदेह के रूप में खाते हैं अन्य लोग वनस्पति लताएँ ,पालक का साग या दुग्ध निर्मित पदार्थों को खाते हैं किंतु सभी का लक्ष्य रसना की आवश्यकता की तुष्टी होता है | इंद्रियों की तुष्टी के लिए ऐसा भोजन जिनमें मिर्च - इमली (खटाई) जैसे मसालों का अत्याधिक प्रयोग हो -कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों के लिए त्याज्य है | पान ,हरीतकी (हरड़) , सुपारी ,पान के विभिन्न मसाले , तमाखू , एलएसडी मरिजुआना ,अफिम,मदिरा ,कॉफी और चाय का सेवन अवैध इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही किया जाता है | यदि हम कृष्ण को अर्पित भोज्य पदार्थों का अवशिष्ट अंश ही ग्रहण करने का अभ्यास कर सकें तो माया के उत्पीड़न से बचना सम्भव है | शाक , अन्न ,फल ,दुग्ध निर्मित पदार्थ ,और जल भगवान कृष्ण या कृष्ण के अन्य अवतारों जैसे राम , नृसिह,विष्णु,आदि को अर्पित किये जाने वाले उपयुक्त भोग हैं | जैसा कि भगवान ने गीता में स्वयं कहा है | किंतु यदि कोई व्यक्ति प्रसाद को उसके स्वाद के कारण लेता है ,और अधिक खाता है तो वह भी रसना के वेग को तुष्ट करने का अपराधी होता है | श्री चैतन्य महाप्रभु ने हमें सिखाया है कि प्रसाद में भी बहुत स्वादिष्ट पदार्थों को ग्रहण नहीं करना चाहिए | यदि हम इष्टदेव को स्वादिष्ट पदार्थ अर्पित करते समय यह इच्छा रखते हैं कि ये उत्तम भोज्य पदार्थ फिर हम ग्रहण करेंगे तो हम रसना की भूख को तुष्ट करने के प्रयत्न में संलग्न हो जाते हैं | यदि सुस्वादु भोजन प्राप्त करने की इच्छा से हम किसी धनी व्यक्ति का निमंत्रण स्वीकार करते हैं ,तब भी समझना चाहिए कि रसना की कामना को तुष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं | श्रीचैतन्य चरितामृत ( अंत्यलीला- 6-227) में कहा गया है : जिह्वार लालसे येइ इति उति धाय | शिश्नोदर परायण कृष्ण नहीं पाय || " वह व्यक्ति जो अपनी रसना की तुष्टी के लिए इधर -उधर दौड़ता फिरता है और जो अपनी जननेंद्रिय और उदर की इच्छापूर्ति में संलग्न है , कृष्ण को प्राप्त करने के लिए अयोग्य है | " जैसा कि पहले कहा जा चुका है ,रसना ,उदर और जननेंद्रिय सभी एक सीधी रेखा में स्थित हैं और ये सभी एक ही कोटी में आते हैं | श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा है : ' भाल ना खाईबे आर भाल ना परिबे ' ' सुस्वादु भोजन मत करो ,और ठाठबाट के वस्त्र न पहनो |' ( श्रीचैतन्यचरितामृत- अंत्यलीला-6-236)

जो लोग उदर रोगों से पीड़ीत हैं , इस विश्लेषण के अनुसार निश्चय ही वे उदर के आवेगों को नियंत्रित करने में असमर्थ लोग हैं | जब हम आव्श्यकता से अधिक खाने की इच्छा करते हैं | तब हम स्वयमेव जीवन में अनेक असुविधाएँ उत्पन्न कर लेते हैं | किंतु यदि हम एकादशी और जन्माष्टमी जैसे उपवास-दिनों का परिपालन करते हैं तो हम उदर की आवश्यकताओं को नियंत्रित कर सकते हैं | जहाँ तक जननेंद्रियों के आवेगों का सम्बध है , वे दो प्रकार के हैं - वैध और और अवैध काम | जब एक पुरूष पूर्णतया वयस्क हो जाय तो वह शास्त्र विधान के अनुसार विवाह कर अपनी जननेंद्रिय का प्रयोग उत्तम संतति प्राप्त करने के लिए कर सकता है | ऐसा प्रयोग वैध और धार्मिक है | अन्यथा वह अपनी जननेंद्रिय की तुष्टी के लिए अनेक कृत्रिम साधनों का प्रयोग करते हुए किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रखेगा | जब कोई व्यक्ति अवैध कामाचार में लिप्त हो जाता है ,जिसकी परिभाषा शास्त्रों में दी हुई है ,काम चिंतन , काम-पूर्ति की योजना, कामचर्चा अथवा प्रत्यक्ष संभोग किंवा कृत्रिम साधनों से काम अवयवों की तुष्टी ,तब वह माया के जाल में फँस जाता है | ये निर्देश केवल गृहस्थों के लिए नहीं अपितु त्यागियों के लिए भी है अपने ग्रंथ ' प्रेमविवर्त ' के सातवें अध्याय में श्रीजगदानन्द पण्डित कहते हैं :

वैरागी भाई ग्राम्यकथा ना शुनिबे काने |
ग्राम्य वार्ता न कहिबे जबे मिलिबे आने ||
स्वपने ओ ना करो भाई स्त्री सम्भाषण |
गृहे स्त्री छाड़िया भाई आसियाछो वन ||
यदि चाह प्रणय राखिते गौरांगेर सने |
छोटो हरिदासेर कथा थाके जेनो मने ||
भालो ना खाइबे आर भालो ना परिबे |
हृद्येते राधाकृष्ण सर्वदा सेविबे ||

" प्रिय बंधु तुम विरागी हो , तुम्हें कानों से कामवार्ता नहीं सुननी चाहिए | जब दूसरों से मिलो तो कामचर्चा नहीं करनी चाहिए | स्त्री से सपने में भी सम्भाषण न करो | यदि तुम गौरांग महाप्रभु से प्रेम रखना चाहते हो तो छोटे हरिदास की कथा को ध्यान में रखना चाहिए कि कैसे महाप्रभु ने उनका परित्याग कर दिया था | सुस्वादु भोजन न करो और ठाठ बाट के वस्त्र न पहनो , अपितु सदा विनम्र रहो और अपने हृदय से श्रीश्रीराधाकृष्ण की सर्वदा सेवा करो | "

सारंश यह है कि जो व्यक्ति इन छः विषयों - वाणी ,मन, क्रोध , रसना(जीभ) ,उदर एवं जननेंद्रियों पर निग्रह कर लेता है ,वही स्वामी या गोस्वामी कहलाता है | 'गो' अर्थात इंद्रियाँ | 'गोस्वामी ' अर्थात इंद्रियों का प्रभु , नियंता | जब कोई पुरूष वैराग्यमय जीवन को अपना लेता है तो वह स्वयमेव ' स्वामी ' बनने का भागी हो जाता है | इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह अपने परिवार ,जाती या समाज का स्वामी हो गया | उसे तो अपनी इंद्रियों का स्वामी होना चाहिए | जब तक वह अपनी इंद्रियों का स्वामी नहीं बनता ,तब तक उसे 'गोस्वामी ' नहीं कहना चाहिए , अपितु 'गोदास '- इंद्रियों का दास कहना चाहिए | वृन्दावन के छः गोस्वामियों के चरण चिन्हों पर चलते हुए ,सभी स्वामियों और गोस्वामियों को प्रभु की दिव्य प्रेममयी सेवा में पूर्णतया संलग्न हो जाना चाहिए | इसके विपरित ' गोदास ' लोग इंद्रियों या भौतिक संसार की सेवा में संलग्न हो जाते हैं | उनको और कोई काम ही नहीं है | प्रह्लाद महाराज ने ' गोदास ' 'अदांत गो ' कहा है , जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी इंद्रियाँ नियत्रित नहीं हैं | ' अदांत गो ' कृष्ण का सेवक नहीं बन सकता | श्रीमद्भागवत् (7-5-30) में प्रह्लाद महाराज ने कहा है :

मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा मिथोsभिपद्येत गृहव्रतानाम् | अदान्त गोभिर्विशतां तामिस्रं पुनः पुनः चर्वितचर्वणानाम् ||
'' जिन लोगों ने अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए ही गृह्स्थ जीवन को स्वीकार किया है , ऐसे अजितेन्द्रिय गृहासक्त पुरूषों की बुद्धि अपने आप ,किसी के उपदेश से या अपने ही जैसे लोगों के संग से कृष्ण में नहीं लग सकती | चबाये हुए को चबाने वाले ये इन्द्रियों के दास लोग संसार रूप घोर अन्धकार मय नरक में प्रविष्ट होते चले जाते हैं | '' आगे-

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                                                                                   जाल प्रणेताbrajgovinddas@yahoo.com

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