श्रीउपदेशामृतम्

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द्वितिय श्लोक(2)-अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः | जनसंगश्च लौल्यञ्च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति ||2||
अति-आहारः=अधिक भोजन या अधिक संग्रह ,प्रयास=अत्यधिक उद्यम (परिश्रम) , च=और,प्रजल्प=व्यर्थ बातें करना,नियम=व्यवस्था(क्रम), आग्रहः=अत्यधिक आसक्ति(अथवा -अग्रहः-अत्यधिक उपेक्षा,असावधानी),जनसंगः=सांसारिक व्यक्तियों का साथ, च=और,लौल्यम=लोलुपता (लालच) ,च=और ,षड्भिः=इन छहों से,भक्तिः=प्रभु की प्रेममयी सेवा,विनश्यति=नष्ट हो जाती है |
अनुवाद - जब कोई साधक निम्नांकित छः क्रियायों में अतिशय लिप्त हो जाता है तो प्रभु में उसकी प्रेममय सेवा-भक्ति नष्ट हो जाती है |(1) आवश्यकता से अधिक खाना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना ; (2) कठिनता से प्राप्त होने वाले सांसारिक पदार्थों के लिए अत्यधिक श्रम करना ; (3) सांसारिक विषयों के बारे में व्यर्थ बातें करना ; (4) आध्यात्मिक प्रगति के लक्ष्य से न करके केवल पालन करने लिए शास्त्र विधियों का पालन करना अथवा शास्त्रविधियों का उल्लंघन करके प्रमाद पूर्वक उच्छृङखल आचरण करना;(5) कृष्ण भावना से विमुख सांसारिक लोगों की संगति करना और (6) सांसारिक उपलब्धियों के लिए लालच करना |
 
 
 

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                                                                                   जाल प्रणेता paradharm@paradharm.com

                                                                          2003 इस्कान द्वारा कापीराइट 2005 तक सर्वाधिकार सुरक्षित